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________________ Deumo ur D - कृष्णसेवापरायण होय दंभादिरहित होय श्रीभागवतको आदरपूर्वक भजन करे तत्त्व जानिवेके लिये। अब कहतहैं ह्याँ नरपद हैं सो जीववाचक हैं वा देह वाचक हैं तहाँ श्रीआचार्यजीको नाम | "स्ववंशे स्थापिताशेषस्वमाहात्म्यं स्मयापहम्"। अशेष माहा त्म्य सो जनोद्धरणरूप माहात्म्य सो अपने वंशविषे स्थापित पद हैं इहाँ वंश हैं और 'दंभादिरहितं नरं' यामें नरपद कहें यह नरपद जीवगत पुंस्त्व कहिये तो स्त्री तथा पुत्री कोऊ व पुरुष है उनहूको उपदेशाधिकार तातें तीन विशेषण कहैं कृष्णसेवापरं १ दंभादि रहितं २ श्रीभागवतत्त्वज्ञ ३ये तीन धर्म स्त्री तथा पुत्री में नहीं कदाचित् ये तीन धर्म पुत्रनविर्षे ऊन होय तो उपदेशाधिकार कैसे होय ? ह्यां यह समाधान जो | "आधुनिकानामुपदेष्टुणामपि स्नेहाभावेपि तन्मूलभूतानां प्राचामाचार्याणां तद्धर्मत्वेन भगवदनुगृहीतत्वेन सर्वोपपत्तेः ” इति भक्तिहंसे । आधुनिक बालकनविर्षे तादृश स्नेह नहीं तोहू प्राचीन आचार्यनको स्नेह हैं सो भगवान् करि अनुगृहीत हैं अंगीकृत हैं ताते बालकद्वारा उपदेश भयो भगवान अंगीकार किये, यह विवेक भगवदयिक घरमें आसुर जीव पुण्यते दैवी देह पायो तब नामापेदेशमात्र होय परंतु निवेदनमंत्र तो देवीकोंही उपदेश होय । अब जैसे “ कृष्णसेवापरं दंभादिरहितं श्रीभागवततत्त्वज्ञम्' य तीन धर्म होय तो प्राचीन अर्चाके हृदस्नेहते अंगीकार है तैसे ये ३ धर्म न होय तोहू पूर्वस्नेह दाढयते अगंकार तो नरत्व न होय तब स्नेहते अंगीकार न होय तो स्त्री पुत्रीनको उपदेशाधिकार सिद्ध भयो तहाँ यह समा धान । मुख्यगुरू तो श्रीआचार्यजी महाप्रभू नरस्वरूपसो उपदेश दान करत हैं याते नरत्व हैं सोस्वरूपांतर्गत हैं याते नरत्व ह । HERam a na %
SR No.010554
Book TitleVallabhvrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangavishnu Shrikrushnadas
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1937
Total Pages399
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size121 MB
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