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तब लौकिक भोग होय तो सेवा फलोक्त तीन बाधकमेंको एक बाधक होय या जन्ममें तो प्रपञ्च जो सेवोपयोगी पदार्थ ता विषे अक्षर ब्रह्मात्मकत्वेन ज्ञान करे तो अलौकिक भोग होय तब याके नियामक पुरुषोत्तम होय और उद्वेग १ प्रतिबन्ध २ लौकिक भोग ३ | मनकी अन्य परता होय तब उद्वेग होय, तनकी अन्य परता होय तब प्रतिबन्ध होय, इंद्रियकी अन्यपरता होय तब लौकिक भोग ॥ १ ॥ मनकी अन्यपरता होय यातें सेवोपयोगी पदार्थ में सर्वथा अक्षरभावना करिये। तब अलौकिक भोग होय ||२|| "अलौकिक भोगस्तु फलानां मध्ये प्रथमे प्रविशति " फल || ३ || मध्य प्रथम फल “ सेवोपयोगी देहो वा वैकुण्ठा दिषु" यह देवभोग्या याको अनुभव होय । यद्यपि प्रथम फल तो अलौकिक सामर्थ्य सो तो सर्वाभोग्या सुधा याको दान तो दोय फलके पीछे होय । ताते प्रथम प्रविशति यामें प्रथम पद हैं सो सेवोपयोगी है मूलमें या फलकों नाम अधिकार हैं अधिकार होय तो अगले फल होंय यातें स्मरण श्रीजीकों करनों । "निवेदनं तु स्मर्त्तव्यं सर्वथा तादृशैर्जनैः । स्मर्त्तव्यो गोपिकावृन्दे क्रीडन् वृन्दावने स्थितः ॥” इति च । सेवा सात मन्दिरकी haar करनी सेवाही सेवकधर्म है "कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता" इति । जो श्रीजी तथा सातों स्वरूपको प्राकट्य महाप्रभु न करें तो स्मरण कौनको करें तथा सेवा कौनकी रीतिकी करें तातें प्रथम तत्त्व श्रीजी तथा सातों स्वरूप १ | अब दूसरो तत्त्व श्रीवल्लभकुल उपदेश विना सेवाको अधिकार नहीं उपदेश तो स्वकुल करिकें "अस्मत्कुलं निष्कलङ्कं श्रीकृष्णेनात्मसात्कृतम् ॥” इति । गुरुके लक्षण कहें हैं- "कृष्णेसवापरं वीक्ष्य | दंभादिरहितं नरम् | श्रीभागवततत्त्वज्ञं भजेज्जिज्ञासुरादरात् ॥”