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________________ | यह विवेक श्रीजी सातों स्वरूपके ह्यां श्रीआचार्यजी श्रीगुसाईजी आपु सेवा करें । ऐसो व्यापिवैकुंठीय पदार्थके आविर्भाव सहित किये। याते होतो आधिदैविकके आविर्भावसहित सेवा है आधुनिक बालकसेवाकरे सो आधिदैविक करवेकी श्रीजी सातों स्वरूपके ह्यां अपेक्षा नहीं ह्यांतो बालक आधिदैविक आविभर्भावसहित सेवा करें तो इन प्रति आधिदैविकको आविर्भाव होय वहां तो स्वतः सिद्ध होय । झारी व्यापि वैकुंठीय झारीको आविर्भाव होय जलमें जलको सिंहासनमें सिंहासनको ऐसे सब वस्तुमें जो जाको आध्यात्मिकताके आधिदैविकको आविर्भाव होय तातें श्रीजी सातों स्वरूपके ह्यांतों व्यापिवैकुंठीय पदार्थके प्राकट्यपूर्वक सेवा करें। और श्रीगुसाईजीके बालक सबनके घर तथा वैष्णवके घर तो सातों मन्दिरमें जो जा घरके बालक तथा वैष्णव जो जा घरके सेवक सो अपने अपने मंदिरकी रीतिसों सेवा करें। सामग्रीमें तो झारीमें झारीको आविर्भाव जलमें जलको या प्रकार सामग्रीमें करें स्वरूप में स्वरूपको और अपने हृदयमेंहू स्वरूपको आविर्भाव करें, तहां भगवदाकृतिमें सम्पूर्ण स्वरूपमें आविर्भाव “ आकृतिसाम्यादाकृतेः, परं यत्र हस्तस्तत्र हस्तः मदवयवेषु तत्तदवयवाः" हस्तमें हस्त या प्रकार प्रत्येक अवयवमें जानिये और भक्तके तो आत्माविषे ही भगवदाविर्भाव हैं स्वात्मनि तं प्रकर्षण पश्यतीत्यर्थः । ह्यां मूलमें ज्ञानी पद हैं सो शुष्क ज्ञानी नहीं किन्तु चतुष्टयज्ञानवान ज्ञानी अहंता निवृत्ति १ ममतानिवृत्ति २ स्वात्मनि । "अक्षरत्वेन ब्रह्मात्मकत्वेन ज्ञान ३ प्रपंचे अक्षर ब्रह्मात्मकत्वेन ज्ञान ४ ये चतुष्टयविशिष्ट सो ज्ञानी ये चारोंकी प्राप्ति दूसरे जन्ममें सिद्ध होय और भौतिक समये अक्षर भावना किये विना %3 - - DDHA
SR No.010554
Book TitleVallabhvrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangavishnu Shrikrushnadas
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1937
Total Pages399
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size121 MB
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