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श्रीआचार्यजीनको प्राकट्य 'चिदानंदसद्रूपः' सत् पुष्टिमार्गमें तत्त्व २८ लौकिक निरूपण किये तैसें अलौकिकतत्त्व ५ निरू-॥ पण किये श्रीजी तथा सातों स्वरूप यह तत्त्व १ श्रीवल्लभकुल २ श्रीगोवर्द्धन पर्वत तथा अपने मार्गके ग्रंथ यह तत्त्व ३ श्रीयमुनाजी यह तत्त्व ४ ब्रजभूमि ५, यह पांच तत्त्व । इनको आशय प्रथम तत्त्व श्रीजी तथा सातों स्वरूप यातें जो श्रीआचार्यजीको नामरासलीलैकतात्पर्य रासलीलामें लिखें 'षोड़श गोपिकानां मध्ये अष्ट कृष्णा भवंति' तहां श्रीवृंदावन स्थिति लीला श्रीजी श्रीगोकुलस्थित सातों स्वरूप स्मरण श्रीजीको करनों तथा भावनाहू करनी “ सदा सर्वात्मना सेव्यो भगवान गोकुलेश्वरः । स्मर्त्तव्यो गोपिकावृन्दे क्रीडन् वृन्दावने स्थितः॥” इति । श्रीजीको कह्यो हैं कीर्तिसेवाकी अपने प्रभुके मंदिरमें न करनी सेवा सातों स्वरूपके जो जा घरके मंदिरकी रीति सेवाकरे व्यापि वैकुंठके पदार्थकी प्राप्ति तो सेवा करिके याको निष्कर्ष सेवा करत हैं सो भौतिकपदार्थ सो या। सेवाकों आध्यात्मिक करें तो आधिदैविकको आविर्भाव होय। यातें सिद्धान्तमुक्तावली ग्रंथ प्रगटकिये। गंगादृष्टांतसो निर्णय“यथा जलं तथा सर्व यथा शक्त्या तथा बृहत् । यथा देवी तथा कृष्णस्तत्राप्येतदिहोच्यते ॥” गङ्गादशमी जैसे गंगा भौतिकी जलरूपा तैसे प्रपंच भौतिक, जैसें शक्त्या तीर्थरूपा आध्यात्मिक बृहत् सो अक्षर जैसे गंगादेवीरूपा आधिदेवकी मूर्तिवंत तसे आधिदैविक कृष्ण । तहां जो जाको आध्यात्मिक ताहीके आधिदैविकको आविर्भाव होय । आध्यात्मिक गंगामें आधिदैविक सरस्वतीको आविर्भाव न होय तैसे सेवामें जा सामग्रीको जो आध्यात्मिक ताहीके आधिदैविकको अविर्भाव होय । तहां।
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