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| वात् । ' यावत्पर्यन्त उत्सव तहांताई व्रत करे । उत्सव होय चुक्यो और व्रत करे तो अनित्य जो जयन्तीव्रत ताकी आपत्ति करिके वेधविरोध बाधक होय । यातें ह्यां तांई आग्रह राखिये जो देह नीकी न होय तोहू उत्सव होय चुक्यो होय तब कछू खाइये । आग्रह न राखिये तो वेधविरोध बाधक हो। ‘सम्पूर्णोपवासे तु अनित्य जयंतीव्रतत्वापत्या वेधविरोधो बाधको भवति।' इन दोऊ जयन्तीनको सम्पूर्ण उपवास तो गोपालमन्त्रको अङ्ग हैं । जो गोपालमन्त्र न लीये होय और सम्पूर्ण व्रत करे तो वेधविरोध बाधक होय । यातें शंखचक्रादिकं धार्य ' याके अभावमें कहैं । अत्र वैष्णवमार्गे वेदमार्गविरोधो यत्र तन्न कर्त्तव्यं यद्यनित्यो धर्मो भवेत् । नित्येपि वेदविरोधः सोढव्य इत्याह साईश्लोकद्धयमिति शेषः।' आश्विन सुदि १ प्रथमपर्व यव बोवनें। दश मृत्पात्रमें जुदे जुदे बोवे,प्रतिदिन नवीन अंकुरित होय तातें नित्य सामग्री नई राजभोगमें समर्पनी । ये सात्त्विकादि नवभेद करि नवमी ताई सगुण भक्तनकों नवांकुरीभाव हैं । आश्विन सुदि १० दशहराको भाव. समुदायको भाव हैं। पर निर्गुणको मुख्य याहीतें श्वेतकुलही श्वेत तासको वागा साड़ी दिवारीतेंहलको तास होय । तास न होय तो श्वेत छापाको । छापा न होय तो श्वेत मलमलको। दशप्रकारको भाव ताते जवारा समर्पिके माठ दश भोग धरे । तैसें दश गोवरके पूवा करि सिंदूरके पांच टिपका तथा मध्य पीरे अक्षत प्रत्येक २ पूवाके ऊपर धरे । प्रभु जवारा घर चुके जब जवारा पुवान पर डारें। जैसें ब्रह्मा पृथ्वीकों थापे तब सृष्टि अंकुरित भई । तब दश प्रत्येक भावकों स्थापन कीये सिंदूर अक्षत करि पूजन किये सो उभय स्वामिनी वर्णविशिष्ट
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