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________________ - % 3Dur - हान्यथा" यह तो विप्रयोगकी है सो तो यशोदाप्रभृतिकीहु नकरे। तो गोपिकादिकनकी कहां यातें आपपरत्व दुर्लभत्वेन कहें। तथा मे मनसि क्वचित् इति । यातें निष्कर्ष यह जो जितनी सेवाको अधिकार कृपाकरिकें दिये हैं तितनी सेवा आशयपूर्वक करे सेवक सम्पत्ति विना तथा विदेश विषं जाय तब तो सेवा न होय आवे तो सेवाकी भावना आशयपूर्वक करनी । गायकों सुधासम्बन्ध है तातें प्रभुकों गायवेको समें जानि घण्टा जो कण्ठमें स्थापित हैं ताकीध्वनि करतहैं। गाय विविध हैं सत्त्व रज तम भेद करिके यातें तीन बेर घण्टा बजावत हैं । प्रभुके जागे पहली फिर गोपमन्त्ररूप है इनहूकों यथाधिकार सुधासम्बन्ध हैं ये शंखनाद करत हैं गोप त्रिविध हैं तातें येहू तीन बेर शंखध्वनि करत हैं व्रजभक्त तो पहिलेही सर्वाभरण भूषित होय गृहमण्डनादिक करि उच्च स्वरसों गान करत दधि मन्थान कार नवनीतादिक सिद्ध करि प्रभुके जागवेकी प्रतीक्षा करत हैं। इतनेमें शंखनाद सुनिकें नन्दालय पधारत हैं यहां श्रीमातृचरण जगावत हैं निर्भरनिद्रा देखि फिरि घर आवत हैं तब ब्रजभक्त प्रबोध पढ़ि जगावत हैं । सूर्योदय समय निद्रा निषिद्ध जानि श्रीमातृचरणहू जगावत हैं तब प्रभु जागि मातृचरणकी गोदमें बैठत हैं। तहां ऋषिरूपा प्रभृति बालभोग धरत हैं तब श्रुतिरूपा प्रभृति दर्शन करि अपने घर आय भावना पूर्वक मङ्गल भोग धरत हैं पीछे मङ्गला आर्तीके दर्शनकों पधारत हैं। ह्यां मङ्गला आर्ती पीछे नित्य तो तप्तोदकसों स्नान और अभ्यङ्गके दिन फुलेल उबटना लगायकें फेर केशर लगाय तप्तोदकसों स्नान हाथों सुहातो उष्णजल राखियें कहा ओछी है जे हैं जाति इत्यादिक कीर्तनकी भावना बालक हैं उठ न भाजे ताते कछू -
SR No.010554
Book TitleVallabhvrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangavishnu Shrikrushnadas
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1937
Total Pages399
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size121 MB
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