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देवजीके ह्या प्रगटे सो व्यूहत्रयविशिष्ट पुरुषोत्तम व्यूह बाहिर पुरुषोत्तम भीतर दृष्टांतमें पुरुषोत्तम प्राकट्य हैं “प्राच्या दिशीन्दुरिव पुष्कलः ” इति । “जायमाने जने तस्मिन्नेदुटुंदु भयो दिवि" यह अनिरुद्धको प्राकट्य, अनिरुद्ध धर्मस्वरूप हैं धर्म सो दुन्दुभीप्रभृति सो बाजने लगी और “निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनाईने ।" यह संकर्षणको प्राकट्य, तमकी निवृत्ति संकर्षण करिकें हैं तातें द्वादशाध्यायमें कहैं हैं " तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम् । देवक्यां विष्णुः प्रादुरासीत् " यह प्रद्युम्न प्राकट्य भाद्र कृष्ण ८ बुधे अर्धरात्र जा समय राहुको चन्द्रसंबंध ता समें वसुदेवजीके ह्यांप्राकट्य फेर वसुदेवजी तथा देवकीजी स्तुति किये भगवान् सांत्वन किये जो तुम मेरे लिये देवतानके बारह हजार वरषपर्यंत अत्युग्र तपस्या किये तब मैं प्रगट होय वर दियो । मनुष्यको वर एक जन्म फलित होय, देवता वर देइ सो दोय जन्म फलित होय, भगवदर तीन जन्म ताँई फलित होय; तातें तीन जन्मही प्रगट भयो । प्रथम जन्म सुतपा पृश्नि तब पृश्निगर्भ भये । दूसरे जन्ममें कश्यप अदिती तब वामनजन्म भये और या जन्ममें वसुदेव देवकी, तब यह प्राकट्य भयो यो कहिके वर दिये या प्रकार तुम दोऊ पुत्रभाव करिकें तथा ब्रह्मभाव करिकें चिन्तन करोगे तो साक्षात् अनुभव करायकें व्यापिवैकुण्ठकी प्राप्ति करूँगो यातें जब श्रीदेवकीजी पुत्रभावना करत हैं तब स्तन्यकी उद्वेग दशा होत हैं तब प्रभु पान करत हैं सो इनकों अनुभव होत हैं याहीते उत्तरार्द्धमें जब देवकीजीके पुत्र ६ ल्याये तहां कहें श्रीशुकदेवजी “पीतशेष गदाभृतः” या प्रकारसों पीतशेष हैं पीछे वसुदेव देवकीजीके देखतही प्राकृत बालक होत भये । यह स्वरूप