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सो दोऊ एक ओर वेदमें जाको व्यापिवैकुंठ कहैं, पुराणमें गोलोक धाम कहैं सो रमावैकुंठ व्यापिवैकुंठ नाही ब्रह्मवैवर्तमें गोलोक धामको वर्णन भयो विरजा नदी कही हैं यह रमावैकुंठ कावेरीमें जल है सो विरजाको है "कावेरी विरजातोयं वैकुंठं रंगमंदिरम् । स वासुदेवो रंगेशःप्रत्यक्षं परमं पदम्॥"इति यातें वेदमें जो गोलोकधाम हैं सो पुराणमें व्यापिवैकुंठ तातें मंदिर सो व्यापिवैकुंठ यह भौतिक अक्षर और सिंहासन यह आध्यात्मिक अक्षर गादी वा चरणचौकी ये आधिदैविक अक्षर यातें मंदिरको ऐसे स्वरूप जान पहिलें दंडोतकार | पीछे भीतरि जाय “ नमो नमस्तेस्त्वृषभाय सात्त्वतां विदूर
काष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम् । निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा स्वधामनि ब्रह्माणि रंस्यते नमः॥” जैसे मंदिरविषे ताप, रज जल इन तीनकी निवृत्ति होत हैं तब बुहारीसे मंदिर मार्जन करतहैं। तब यह भाव राखें प्रभु क्रीड़ा भक्तनसहित किये हैं उन चरणारविंदकी रजको स्पर्श हैं सोय रज उड़िके या देहको लागतहैं तब तमोगुणकी निवृत्ति भई। जब मंदिर धोइये तब जल जो सत्त्व तातें रजोगुणकी निवृत्ति भई फेर मंदिर वस्त्रसों पोछिये तब वस्त्र स्वच्छभयो सो स्वच्छसो निर्गुणता, करिके सत्त्वकी निवृत्ति भई ऐसी निर्गुण बुद्धि भई तब सेवाकी योग्यता भई हैं ऐसी निगुणबुद्धिपूर्वक व्रज भक्त भगवन्मंदिरमें पधारतहैं ऐंसो मंदिरको भाव राखे और ब्रजभक्तनको भाव पूर्ण पुरुषोत्तम विषेही हैं । सारस्वत कल्पमें श्रीनंदरायजीके यां जिनको प्राकट्य हैं तिनमेंई औरमें नहीं “जानीत परमं तत्त्वं यशोदोत्संगलालितम् । तदन्यदिति ये प्राहुरासुरांस्तानहो बुधाः" इति वाक्यात् । अथ प्राकटयको विचार-प्रथम श्रीवसु
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