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कको आविर्भाव होय । श्रीगोवर्द्धन ऐसे भगवदीय है। भगवत्सेवा करिके प्रभुनके साथ जे गाय गोपी तिनहूको संमान करत हैं। “पानीयसुवस” इति । अथ व्रजको स्वरूप । वाराह पुराणमें पृथ्वी वाराहजीसों पूछी । सर्वत्र भूमि है तामें आपकों प्रिय भूमि कौनसी ? तब भी वराहजी प्रयाग प्रसंग कहैं । वैकुण्ठनाथ प्रयागकों जब तीर्थराज किये तब तीर्थ सब प्रयाग पास आये । तीर्थनको देखि प्रयाग कहे-तुम यहाँ रहो मैं प्रभुनपास होय आऊं । तब वैकुण्ठमें जाय द्वारपालनसों कहे, मैं आयो हूँ यह प्रभुनसों विज्ञप्ति करो । इतनेमें प्रभु आपुहीते पधारे तब दर्शन भयो । श्रीमुखते आज्ञा भई । आवो तीर्थराज ! तब प्रयाग विज्ञप्ति किये । यही पूछिबेको आयो हूँ, जो तीर्थराज किये, परन्तु सर्व तीर्थ आये, ब्रज नहीं आयो। तब श्रीमुखते आज्ञा किये जोहम तुमकों तीर्थनके राजा किये हैं, हमारे घरको राजा नहीं किये । व्रजतो हमारो घरहैं। यावजके वृक्षवृक्षप्रति वेणुधारी हूँ पत्र पत्रविषे चतुर्भुजहूं-“वृक्षे | वृक्षे वेणुधारी पत्रे पत्रे चतुर्भुजः। यत्र वृन्दावनं तत्र लक्ष्यालक्ष्यकथा कुतः ॥” इति वाक्यात् । जा जजमें भगवज्जन्म भयो ता करिकें ब्रजदेश शोभायमान भयो लक्ष्मीसेवाके लिये निरंतर वन देशको आश्रय करत हैं। "जयति तेऽधिकं जन्मना ब्रजः श्रयत इंदिरा शश्वदत्र हि " इति । पृथ्वी तो गोरूप हैं जैसें गायके रोम रोम पवित्र हैं पर दूध चाहिये तब स्तनको आश्रय करत हैं तब मिलें तैसे पृथ्वीमें जितने तीरथ हैं तिनते पापक्षय होय परंतु भगवत्प्राप्तिकी जब अपेक्षा होय तब ब्रजको आश्रय करे तबही भगवत्प्राप्ति होय । श्रुतिनकों जब दर्शन भयो तब येही वर दियो “कल्पं सारस्वतं प्राप्य बजे गोप्यो भविष्यथ॥" ब्रज
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