________________
HERRAGe
te
श्रीजी साथ मानतो सराईदा । निरुपा जो विद्वन्मा श्रीजी
सोंपे जो श्रीघनश्यामजी अबही छोटे हैं बड़े होंय तब दीजिये। जिनके लिये टीकाको प्रागट्य भयो सो स्वभाव परावर्तन किये न किये होंय तो विरहानुभवही होंय संयोगानुभव न होय । यातें पहिले संयोगानुभवके लिये टीका प्रगट किये। श्रीगुसाईजीविषे वेणुस्थापित ऐश्वर्यादिकनको प्रागट्यहै तथा श्रीविठ्ठल या नामकी निरुक्तिमें तेहू षडणऐश्वर्यादिकको प्रागट्य है यातें एक प्रकार तो सातों बालकनमें निरूपण किये। श्रीगिरिधरजीविषे छहों गुणको प्रागट्य । प्रथम ऐश्वर्य तो सातों स्वरूप श्रीजी साथ अन्नकूट आरोगे यह विज्ञप्ति श्रीगुसईजीसूं किये। पाछे पधराये सज्ञानतो सराहेंई पर मूढ़हू पूजन लगे “ईश्वरः पूज्यते लोके मूरैरपि यदा तदा । निरुपाधिकमैश्वर्यं वर्णयन्ति मनीषिणः ॥” इति वाक्यात् । वर्यि तो यह जो विद्वन्मण्डनके प्रागट्यमें प्रतिद्वन्द्वी होय पूर्वपक्ष किये, यश तो यह जो श्रीजी अपने श्रीहस्तसें हाथ पकड़े श्रीतो यह जो सब उत्सवनको | शृंगारादिक येई करें, ज्ञान तो यह जो गोपालमन्त्रको स्वीकार किये, वैराग्य यह जो नव लक्ष रुपैया लाड़वाई धारवाई लाई पर आप त्यागकिये, छहों गुण श्रीगिरधरजीविषे प्रगट कहें तब एक गुण छहो बालकनमें प्रगट और पांच गुप्त श्रीगोविन्दरायजीविषे ऐश्वर्य उत्थापनकी सेवा नित्य आपु करते जब स्वपुत्रको विवाह आयो तब इततो व्याहिवेको चलिवेको समय ता समें नेत्र भरिआये । तब श्रीगुसांईजी पूछे ऐसे क्यों ? तब कहे उत्थानको समय है तब आपु आज्ञादिये सेवा करो वा समें भक्तिकी ऐसी उद्वेगदशा देखिके आपु प्रसन्न भये श्रीबालकृष्णजीविषं वीर्य जब श्रीगुसांईजीके पितृव्यचरण श्रीगोकुलमें आयके कहैं श्रीबालकृष्णजीको देउ तो मैं दक्षिणा
AISE
-