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श्रीभागवतकी पुस्तकको स्थापन किये । अथ श्रीगोकुलनाथजीको स्वरूप ४ श्रीगुण प्रागट्य जब जुदे भये तब जन्माष्टमी आई । स्वसेव्य श्रीगोवर्धनधरजीको पालने बैठाये । श्रीगुसाँईजीको हाई जानें श्रीनवनीतप्रियजी पालने बैठे गेलगेलाऊ बैठे बाललीला पालनों प्रौढलीला डोल जैसे बालस्वरूप बैठें तैसे प्रौढस्वरूप पालनें बैठे, यह श्रीगुसांईजीको हाई न होय तो बालस्वरूपकों पालनें बैठाये होंते । प्रौढस्वरूपकों डोल बैठाये होते एक ही स्वरूप सब लीलाविशिष्ट हैं। अथ श्रीरघुनाथजीको स्वरूप ५ धर्मीको प्रागटय जैसें दशमस्कंधमें तामस प्रागट्य जैसें दशमस्कंधमें तामस प्रकरणके फलप्रकरणमें श्रीपीछे दशमाध्याय पीछे वैराग्य पीछे ज्ञान तैसे पांचयें बालक हैं सो धर्मी
और क्रमप्राप्त जो ज्ञानगुणको प्रागटय ज्ञानस्वभाव परावर्तन करे याको प्रमाण यह जो इनके प्रभु जो श्रीगोकुलचंद्रमाजी सो श्रीगुसांईजी मध्य पधराये । आगे श्रीनवनीतप्रियाजी १ वामभाग श्रीमथुरेशजी २ तिनके आगे श्रीविठ्ठलेशरायजी ३ इनकी बराबर श्रीमदनमोहनजी ४ दक्षिणभाग श्रीद्वारकानाथजी ५ आगे श्रीगोवर्द्धनधरजी ६ इनकी बराबर श्रीबालकृष्णजी और ग्वालके समें श्रीगुसांईजीकी आज्ञातें श्रीरघुनाथजी पधारे। तब श्रीआचार्यजीको साक्षात् दर्शन भयो। अब श्रीयदुनाथजीको स्वरूप ६ वैराग्यगुणको प्रागट्य फलप्रकरणकी रीति वैद्यविद्या स्वीकार कर जगत्को उपकार किये। देह नीरोग होय तो वैष्णवसों सेवा होय और जो कोऊ सत्कर्म हैं तामें निवेश होय "हरेश्चरणयोः प्रीतिर्वैराग्यं"। श्रीवनश्यामजीको स्वरूप ७ ज्ञानगुणको प्रागट्य फल प्रकरणकी रीति श्रीगुसांईजी मधुराष्टककी टीका प्रगट करि श्रीगिरिधरजीकों
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