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“यावन्ति पदपद्मानि" इति वाक्यात् । जैसे न पारयेहंयाके अनु| भावार्थ श्रीमदाचार्यजी आज्ञा किये "गोपिकानां तु यदुःखंतदुःखं | स्यान्मम क्वचित् " आप परत्व कहें तैसे श्रीगुसांईजी आज्ञा किये।" विठ्ठलपदाभिधेये मय्येव प्रतिफलतु सर्वत्र सततम् ।” । मय्येव यामें एवकार कहें सो आप परत्व कहें । तातें मुख्य
स्वामिनीका दास्यरस ताको अनुभव श्रीगुसांईजी करत हैं। || याहीतें अष्टक तथा स्तोत्र प्रगट किये। निष्कर्ष यह हैं जो सुधा| पुरुषाकाररूप श्रीआचार्यजी और सुधाकी स्थिति वेणुमें है,वेणु कैसो है ? वश्चंद्रययौ तौअणू यस्मात् ' ऐसो वेणु वा मोक्षानन्द कामानन्द ये दोऊ जानै अणु हैं सो तुच्छे हैं। काहेते? "सवयसस्तदुपधार्य सुरेशाः शक्रशर्वपरमेष्टिपुरोगाः। कवय आनतकन्धरचित्ताः कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वाः॥" शक्र इंद्र शर्व महादेव,परमेष्ठि ब्रह्माये वेणुनाद श्रवणको आये हैं। पर “अनिश्चिततत्त्वाः कश्मलं ययुः" तत्त्वको निश्चय न भयो मोहकों प्राप्तभये रागको ज्ञानको ज्ञान न होयगो सो तो कवि आपही हैं चित्त दे सुनें न होंयगे सो तोआनतकंधर चित्त हैं तो आये काहे महादेव तथा ब्रह्माकों मोक्षानन्दको अनुभव है और इन्द्रको कामानन्दको अनुभवहै यह वेणु है याके आगे जैसो मोक्षानन्द ऐसो कामानन्द सोऊ तुच्छ है । सो देखिवेको आये हैं। जाके आगे दोऊ आनन्द तुच्छ भये । सो पदार्थ कैसो है ? तथापि ज्ञानहू भयो तत्त्वज्ञानके विना समुझे सो मोह भयो। सुधा ऐसी वेणुमें स्थापित है तैसें श्रीगुसांईजीकू श्रीमदाचार्यजीते उपदेश है तातें सुधास्थानापन्न वेणुस्थानापन्न श्रीगुसाँईजी भये । तातें ह्या वेणुवत् मोक्षानन्द कामानन्द तुच्छ ऐसी देहको स्वीकार तातें यहाँ इतनो देहभाव है। परन्तु वेणुमें शेष