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| सो संन्यास किये तातें देहपरित्याग भयो । आसुरव्यामोहलीलासमें दशाश्वमेधके घाटमें कटिभागपर्यंत जलमें ठाढ़े रहें तब सवको ये दृष्टि आयो । जो जहाँताई ऊँची दृष्टि जाय तहाँ तेजको स्तंभ दीस्यो । जैसे प्रभावलीलाविर्षे । तातें यह अंग नित्यहें, भौतिक नहीं । या प्रकार श्रीमदाचार्यजीको भूलोकमें प्रागव्य किये । दोय आशय । ताको स्वरूप एक तो शेषभाव एक अशेषभाव । शेषभाव तो “ नमामि हृदये शेषे” यामें दास्यभावको अनुभव करत हैं न पारयेहं या श्लोकको फलितार्थ सो शेषभाव और अशेषभाव तो जनको उद्धरणरूप सो सब बालकत्वावच्छिन्नविषे स्थापन किये। भूमि विषे भक्त जो भगवन्माहात्म्य ताके प्रचारार्थ अब अशेष म्हात्म्य तो बालकनमें स्थापन कियेई हैं। और शेष माहात्म्य जो है ताको सम्बन्ध जे होय सोभाग्य । याते शेष माहात्म्यकी कृपाकरें ऐसो उपाय करिये। ऐसो श्रीमदाचार्यजीको स्वरूप है मुख्य सुधा पुरुषाकार "बापीडं नटवरवपुः ' या श्लोकप्रतिपादित यह स्वरूप है यहां देहभाव नहीं रसरूप हैं । जैसे देहमें वीर्य मुख्य तैसे भगवत्स्वरूपमें सुधा देहमें वीर्य सार मस्तकमें रहै। यहां सुधा स्वरूपमें सार है आनन्दसारभूतसों अधरमें स्थित है लोभात्मक अधर है यथायोग्य दान करै या प्रकार भावना करनी॥अथ श्रीगोसाँईजीको स्वरूप। जीवय मृतमिव दास' यह वाक्य भगवान् कहें पर कृतिमें न आयो जैसे श्रीमदाचार्यजी अग्निरूप होय वाक्पति है तथा 'न पारयेहं' या श्लोकके अनुभावार्थ दास्य करत हैं तैसे ये अग्नि कुमार हैं इनहू विषे दोय धर्म हैं। वाक्पति हैं ताते दैवीको उद्धार करत हैं। यातेंभगवत्त्व हैं जीवय मृतमिव दासम्' या रसके अनुभावार्थ वाक्य सत्यके लिये स्वामिनी दासत्व हैं
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