SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ un - - अन्यहष्टि संबंध न होय यातें नवधा भक्ति साधनरूप तो दोऊ मंत्रनतें सिद्धभई । परंतु फलरूपतो न भई । तातें "श्रवणादशनायानान्मयि भावानुकीर्तनात् " श्रवण, दर्शन, ध्यान, मयि भाव मद्विषयक जो भाव “रतिवादिविषया भाव इत्यभिधीयते " भाव सो रति, रति सो प्रेम तामें ध्यान जो है सो तो दर्शनके और प्रेमके मध्य आयो तातें फल मध्यपाती भयो रहे तीन श्रवण १ दर्शन २ प्रेम ३ ऐसे नवधामें जानिये कीर्तन १ दर्शन २ प्रेम ३ स्मरण ४ दर्शन प्रेम ऐसे मध्यकी भक्ति में ऐसे आत्मनिवेदन आत्मनिवेदनसम्बन्धी दर्शन आत्मनिवेदनसम्बन्धी प्रेम, स्वस्मिन् ज्ञानी प्रपश्यति ' यह आत्मनिवेदन सम्बन्धी दर्शन और “कृष्णमेव विचिन्तयेत् ? यह विचिन्तन रूप आत्मनिवेदन सम्बन्धी प्रेम कहे,यातेंजारी श्रवणादि नवमें दर्शनांत भयो तहां ताई तो मर्यादा प्रेमान्त भयो तब पुष्टितातें दोय मन्त्रकरि साधनरूप नवधा भई। अब जो श्रवणादिक करने सो प्रेमान्त होय तो शुद्धि पुष्टि होय न करे तो मिश्रभाव रहै। मर्यादापुष्टि १,तथा प्रवाहपुष्टि २,तथा पुष्टिपुष्टिश्ये तीन मिश्रभाव “पुष्टया विमिश्राः सर्वज्ञाः प्रवाहे सक्रियारताः॥ मर्यादाया गुणज्ञास्ते शुद्धाः प्रेम्णातिदुर्लभाः ॥” जे पुष्टि पुष्ट है तो क्रियारत हैं सर्वज्ञ हैं सब जानत हैं सब कहा सेवा कथा स्मरण ये तीनों आशय सहित जाने प्रवाह पुष्टि हैं ते क्रियारत हैं क्रिया सो सेवा यह मार्ग गीतसों करिजाने पर आशय न जाने मर्यादा पुष्ट हैं ते गुणज्ञ हैं गुण सो कथा तामें रुचि सेवामें नहीं ये तीन मिश्र भाव । इनते भिन्न सो शुद्ध पुष्टि सो दुर्लभ है शुद्ध पुष्टि भई । तब निरावरण सेवा होय । अंशावतारके भजनमें सबको अधिकार और पूर्ण पुरुषोत्तमके भजनमें समर्पण %3
SR No.010554
Book TitleVallabhvrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangavishnu Shrikrushnadas
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1937
Total Pages399
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size121 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy