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________________ Jaanwer amituddnani यह निष्कर्ष समर्पण मन्त्र तो बाल्यतें लेई “ अज्ञानादथ वा ज्ञानात्"या वाक्यतें परन्तु अपने गुरु न पधारे होंय तो एकांश समर्पण तो होय चुक्यो है। दारागारपुत्राप्ति हैं तातें एकांश संबंधसों भयो । ताते स्वरूप जब पधारें तबही शरणमंत्र तथा निवेदनमंत्र लेई, न पधारें तहांताई न लेई तो दीक्षारहितको दोष नहीं एकांशसंबंधतो हैं अपने गुरू छोड़ि और बालक पास उपदेश लेई तो अपने घरमें जे प्रभु विराजत होंय तोसों तो जहांको उपदेश हैं तिनके मुख्यसेव्य सातों स्वरूपनमें हैं, लड़काप्रभृतिकों और ठौर उपदेश लिवावें तब मंदिरमें कौनसें स्वरूपकी सेवा तथा भावना करे यह अपराध पड़े और गुरू न पधारें तो सेवोपयोगी कुटुंबको उपदेश लिया तो और बालक पास लिवावें । तब वाकें ह्यां प्रभु इन गुरुनके मुख्य सेव्य स्वरूप तिनके भावसों विराजें। तब वाहीप्रकारकी सेवाकी रीति सेवाकरें मुख्य तो जब गुरू पधारें तब ज्ञानभये पीछे लेई समर्पणलिये पीछे ज्ञातमें भोजन कियो हैं ताके लिये उपवास । करिके सेवामें जाय जब मर्यादा पाले तब उपवास करे जैसे ब्राह्मण स्नानतें शुद्ध तैसे उपवासते इंद्रिय शुद्ध समर्पण पालवेको अंग उपवास करिके निवेदन मंत्र लेइ तो एकादशीके। दिन जो आज्ञा भई एकादशेंद्रियसे अधिक यह विश्वास छूटिजाय । किंच ब्रह्मसंबंधमें तुलसी हाथमें देतहें ताको आशय याते जो अन्य संबंध न होय किंतु भगवत्संबंध ही होय फेर वाके पासतें मांगलेतहैं साक्षात्स्वरूप विराजतहोंय तो चरणारविंदपर धरें जो परोक्ष होंय तो भावनासों धरिये “ नान्यसमक्षमंजः” इति वाच्यात् " श्रीमत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या लब्ध्वापि वक्षस्थलं किल भृत्यजुष्टं"भोगमेंहूं याहीत्ते धरिये । o ino - - - mindianculus muaamanand
SR No.010554
Book TitleVallabhvrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangavishnu Shrikrushnadas
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1937
Total Pages399
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size121 MB
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