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| भक्ति तो भक्तनिष्ठ हैं। दोय भक्ति भगवनिष्ठ हैं सात भक्ति तो
शरण मन्त्र सिद्ध हैं । “ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । तस्मात्सर्वात्मना नित्यं” इति वाक्यात् । दोय भक्तिकी चिन्ता भई । तब श्रावण शुक्लपक्षकी ११ एकादशीको अर्द्ध|| रात्रिकों श्रीगोकुलमें आज्ञा भई "ब्रह्मसम्बन्धकरणात्सर्वेषां देह
जीवयोः। सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः॥” या करिकें दोय भक्ति सिद्ध भई । भगवद्वाक्यमें तीन चरण हैं सो त्रिपदा गायत्री तातें गायत्रीको दृष्टान्त दिये । ' यथा द्विजस्य वैदिककर्मणि गायत्र्युपदेशजसंस्कारवत्' या दृष्टान्तते यह अर्थ सिद्ध भयो गायत्रीमन्त्र वैदिक कर्म है। याहीसों पहिले दिन उपवास नहीं तो निवेदन मन्त्र तो भक्ति बीज है याको उपवास है कहाँ । या पोंण श्लोकमेंतें निवेदन मन्त्रको आविर्भाव है। देहपदको विवरण है। 'दारागारपुत्राप्तिवित्तेहापराणि' इत्यादि देहपद हैं सो सभा समर्पणार्थ श्रवणके देवता विष्णु हैं । तातें | महीना वैष्णव कहैं शुक्लपक्ष छोड़ अमल. पक्ष कहै सो भगव-|
सम्बन्ध जीवनकों भयो ते मलरहित भये नाम निर्दोष भये। एकादशी कहें सो एकादशेन्द्रिय शोधक हैं । जाते देहेंद्रिय नौ वादिन आज्ञा भई याहीते शुद्धि भई । अब याको मन्त्रोपदेश पहिले उपवास करिके मन्त्र लेनों यह विधि नहीं, किन्तु "एक शास्त्रं देवकीपुत्रगीतमेको देवो देवकीपुत्र एव । मन्त्रोप्येकस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥" याके व्याख्यानमें लिख्यो है “तस्य देवस्य सेवा” इतनेमें पूर्वपरामर्शहो तो देवपद क्यों कहे ? ताको आशय “न मनुष्यत्वेन ज्ञातव्यमिति देवमिति ' जैसे मनुष्यके छुवेमें सेवा न करिये ऐसे देवकी सेवा न करिये । अपरस होय तो करिये । याको
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