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________________ सभय होय आसुर जीवकी गुणगान कीनी तब दैवी इंद्रियनका पाप वेध भयो । यातें दैवी जीव शुद्ध तथा देह शुद्ध इंद्रियमें दैविध्य आप दैवी आसुरतें गानतें असुरभावसहित यह मूल| दोष हैं। यह निरूपण"द्वयाह प्राजापत्याः" या श्रुतिमें कह्यो है। "द्वेधाह्यर्थभेदात् ” या सूत्रमें व्यासजी निरूपण कियेहैं । ऐसें मूलमें दोषग्रस्तहैं । यह दोष निवारण तब होय जब तुम्हारो प्राकट्य होय और उद्धारकहू वेई जिनके अलौकिक आभरण होय । सो अलौकिक आभरण तीन ठौर हैं। श्रीकृष्णचन्द्रविर्षे हैं “ उदामकांच्यंगदकंकणादिभिः ” उद्दाम जो डोरा तद्रहित । कांची रहें क्यों जो यातें लौकिक सूत्रभाव कहें श्रीयमुनाजी । विषे कहें "तरंगभुजकंकणप्रकटमुक्तिकावालुकानितंबतटसुंदरी नमत कृष्णतुर्यप्रियाम्" ये दोऊसिद्धसाधन जे लीलास्थ भक्त हैं तिनके उद्धार श्रीमदाचार्यजीविषे हैं। “अप्राकृताखिलाकल्पभूषितः” श्रीभागवते 'प्रतिपदमणिवरभावांशुभूषिता मूर्तिः' साधनरहित जे दैवी जीव आधुनिक तिनके उद्धारक हैं। "भगवान् विरहं दत्वा भाववृद्धिं करोति वै । तथैव यामुनस्वामिस्मरणात् स्वीयदर्शनात्। अस्मदाचार्यव-स्तु ब्रह्मसंबंधकारणात तापक्केशप्रयत्नेन निजानां भाववर्द्धकाः ॥ त्रयाणां सजातीयत्वं सिद्धम् । आधुनिक भक्तनको उद्धारतब ही होय जब श्रीमदाचायजीको दृढ़ आश्रय होय श्रीमदाचार्यजी भूलोकमें प्रगट होय भगवत्आज्ञातें जो दैवीजीवनको उद्धार करें नवधा भक्ति विना प्रेमलक्षणा भक्ति नहीं होय । प्रेमलक्षणा भक्ति विना पुरुषो-1 त्तिमकी प्राप्ति नहीं होय । नवधा तो एक एक कठिन हैं । राजा। परीक्षित सारिखें होंय तब मर्यादामार्गीय श्रवण भक्ति होय | पुष्टिमार्गीय श्रवणभक्ति तो याहूतें आगे है। तहां श्रवणादि सात जातकशप्रयत्नेन भक्तनको जामदाचार्यजी नवधा भात पुरुषो Darpitionspiracur - Romaar
SR No.010554
Book TitleVallabhvrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangavishnu Shrikrushnadas
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1937
Total Pages399
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size121 MB
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