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सारभूत सुधा है। और शृङ्गार श्याम हैं तातें नीलांबर प्रिय हैं। दक्षिणभागस्थ श्रीस्वामिनीजी विराजत हैं। तिनको स्वरूप शृंगाररसरूप जो भगवत्स्वरूप है तिनको उद्दीपन विभाव है।। आरक्त स्वरूप हैं सो रसको उद्बोधक हैं। गौर स्वरूप शृंगारको उद्बोधक हैं। आरक्त स्वरूप हैं सोशृंगारमें जो रस हैं ताको उद्बोधक हैं । अतएव दांतके खिलोना वाम भाग रहें लाल खिलोना दक्षिण भाग रहें श्याम हैं सो गौरकी जो उभयत्र प्रीति हैं सो मूर्तिवंत ये स्वरूप हैं। कीर्तनमेंहूँ कहे हैं । तट तरंगिनी निकट तरणिक तट मृदुल चंपकवर्णी दक्षिण प्रीति वामभाग जोरी कर्वरी प्रीतिको कथन शब्दात्मक है। शब्दको मूल तो। वेद, वेदको मूल गायत्री सो गायत्रीरूप ब्रह्म आपही होतभये। " श्रीकृष्णः स्वात्मना सर्वमुत्पाद्य विविधं जगत् । तदासक्तावबोधाय शब्दब्रह्माभवत्स्वयम् ॥ तत्र सर्गादिभिः क्रीडन् नित्यानंदरसात्मकः। निजभावप्रकाशाय गायत्रीरूप उद्धभौ ॥ " इति वाक्यात्। तातें गायत्रीरूपहू येही हैं। अतएव नाम श्रीचन्द्रावलीजी चन्द्रमें नियत श्याम कला हैं गौरकला हैं दोऊके उद्बोधक हैं यातें नाम यह हैं और अपर श्रीस्वामिनीजी हैं सखी नहीं तातें दक्षिण भागमें सदाही विराजे । पोढ़ेऊँ ऐसे शृंगारहू दोऊभागको एक भांतिको होय । अब श्रीयमुनाजीको स्वरूप कहत हैं-तुर्य प्रिया सोचतुर्थप्रिया सोया प्रकार कितनेक भक्तनको ब्रजलीलामें अंगीकार हैं । जैसें नन्दादिक प्रभृतिनको कितनेक भक्तनकों राजलीलामें अंगीकार हैं जैसें वसुदेव प्रभृतिनको, कितनेक भक्तनकों उभय लीलामें अंगीकार है । जैसे कुमारिकानकों उत्तरार्धमें “बलभद्रप्रियः कृष्णः" या अध्यायकी सुबोधनीमें कुमारिकानको पुराणांतर संमति देयके द्वारकानयन
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