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धर्मिरूप आनन्दः सायुज्यं भगवद्भोग्या सुधा धर्मिभूत आनन्दः प्रभु अप्रधानीभूय भक्तपरवशतें सेवोपयोगिदेहो वा वैकुण्ठादिषु देवभोग्या सुधा धर्मभूत आनन्दः प्रभु अप्रधानीभूय स्ववश हैं ३ ये तीन फल | जैसों स्वर्ग फल ता मध्य अमृतपानादि तद्वत् मानसी फलरूपा ता मध्य ये तीन ३ फल होंय । यह पूर्वपक्ष जो अन्तर्यामीरूप करके तो भगवान् सबके हृदय में हैं । उपदेश लेवेके आशय कहाँ ? तहाँ कहते हैं- " बहिश्चेत्प्रकटः स्वात्मा वह्निवत्प्रविशेद्यदि । तदैव सकलो बंधो नाशमेति न चान्यथा ॥ " स्वात्मा बहिश्चेत्प्रकटः " वह्निवत् यदि प्रविशेत् तदैव सकलो बंधो नाशमेति अन्यथा न " । जैसे अरणी कष्ट अनि है पर दाहक सामर्थ्य नहीं जब मथन करिकें वा अग्रिको स्पर्श अरणीकों करिये तब काष्ठांश निवृत्तकार जैसा अग्रिको स्वरूप है तैसो करै ऐसेही अन्तर्यामी रूप करिके यद्यपि अन्तःकरणमें हैं तोऊ बंधनिवर्त्तक सामर्थ्य नहीं तो भक्ति देके भगवत्प्राप्ति कैसें होय यातें गुरूपदेश मुख्य है। गुरू तो या प्रकारको शिष्यके हृदयमें स्थापन करतहें
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अंतः प्रविष्टो भगवान् मृदुद्धृत्य च कर्णयोः । पुनर्निविशते सम्यक् तदा भवति सुस्थिरः ॥ " ताते गुरूपदेश आवश्यक है " विना श्रीवैष्णवीं दीक्षां प्रसादं सद्गुरोर्विना । विना श्रीवैष्णवं धर्म कथं भागवतो भवेत् ॥ " उपदेश न लेइ तो बाधक है । " अदीक्षितस्य वामोरु कृतं सर्वं निरर्थकम् । पशुयोनिमवाप्नोति दीक्षाहीनो मृतो नरः ॥ " गुरुहू वैष्णव होय ॥ महाकुलप्रसूतोऽपि सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । सहस्रशाखाध्यायी च न गुरुः स्यादवैष्णवः ॥ दीक्षा लेवेमें कालादिकहू बाधक नाहीं । " न तिथिर्न च नक्षत्रं न मासादिविचारणा ।
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