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मंत्र २-शरणमंत्र १ निवेदनमंत्र १, तहाँ शरणमंत्रको आवांतर फल सो यह हृदयकी शुद्धि तथा आसुरभावकी निवृत्ति | " तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम । वदद्भिवं सततं स्थेयमित्येव मे मतिः। एवं वदद्भिरिति च” "श्रीविष्णोनाम्नि मंत्रेऽखिलकलुषहरे शब्दसामान्यबुद्धिः” इति वाक्यात् । और मुख्य फल तो श्रवण १ कीर्तन २ स्मरण ३ चरणसेवन ४ अर्चन ५ वंदन ६ दास्य ७ ये प्रकारकी सात भक्ति सिद्धभई और निवेदनमंत्रकी योग्यता होय शरणमंत्रमें श्रीपद है सो भक्तनकों बहिर्दर्शनार्थ जो आविर्भूत तिनको स्मरण हैं “कदाचित्परमसौंदर्य स्वगतं करिष्यामीति साकारं प्रादुर्भूतं सत् श्रीकृष्ण-"इति निबंधे तथाभगवत्स्वरूपविर्षे आर्ती होय स्मृतिमात्रार्तिनाशनः' इति वाक्यात् । शरणमंत्रके दोय फल मंत्रमें श्रीपद है ताके आशय दोय जाननें और निवेदनमंत्र बीज है। या मंत्रको आवांतर फल सख्य तथा आत्मनिवेदन भक्ति दोऊ सिद्ध 'भगवानेव शरणं' यह हरत्याख्य कोमल बीजभाव तथा सावरण सेवा साधनरूपा प्रेमासक्तिपर्यंत और मुख्य फल तो व्यसन सर्वात्मभावपर्यंत फलरूपा मानसी भक्ति द्रुमसिद्धसेवा निरावृत्ति सिद्धतवजमूर्तिबुद्धिनिवृत्ति होय शृंगार कल्पद्रुमम्" इति वाक्यात् " सर्वात्मभावको स्वरूप सर्वेद्रिय संबंधी आत्मा जो अंतःकरण ताको भगवानविर्षे भाव सो भावसाधनरूप आधुनिक भक्तनविर्षे " हरिमूर्तिः सदा ध्येया” इत्यादि निरोधलक्षणविषे निरूपणकिये फल रूप भाव तो लीलास्थभक्तनविर्षे भगवता सह संलापाः' इत्यादि कारिकानविर्षे "अक्षण्वतां
फलमिदं " या श्लोकमें निरूपण किये हैं। अब फलरूपा मान|| सके मध्य फल ३ हे 'अलौकिकं सामर्थ्य' सो “सर्वा भोग्या सुधा
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