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________________ R ADIOSee वसों व्यवहार होय सो प्रसाद लेवेकों बुलावै तहां जाय सो प्रसाद परोसे सोलेय आप यथाशक्ति भोग धरयो है परंतु जहां के भावते विराजतहैं तहां सकल सामग्री अरोगे यातें समाज राखवे कोई अवश्य जाय प्रसादले यामें बाधक नाही समाज रहे तो उत्सवकीर्तनि चलें तब गुरुसेवा तथा भगवत्सेवा सिद्ध होय “यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ॥” इति वाक्यात् सेव्यस्वरूपकों वर्ष एकमें तीन बेर भेट करै। ताको प्रकार-प्रथम पवित्राके दिन प्रभुको पवित्रा पहिराय दूसरो पवित्रा गुरूके भावसों पहिराय भेट करिये घरमें जे होय ते यथाशक्ति भेट घरे इनहूंको सेवा सिद्ध होय, तातें द्वितीय जन्माष्टमीके दिन तिलकके समय तो श्रीफल मात्र भेट धरिये । मुख्य भेट प्रभु पालने पधारें तब हाथको कपड़ा रेशमी प्रभुके पालने में माड़िके उठाइये । पीछे आप तथा घरके जे होंय ते भेट धरें। पालनेके आगे खिलोनाकी तबकड़ीमें बंटी होय तामें धरिये । भाव यह राखिये जो श्रीनंदरायजीके सगे झगा टोपी चूड़ाको लावै । या समेसों अधिकार महाप्रभूनकी कृपातें अपनकोहूँ सिद्ध भयो यह भाग्य, तृतीय तो दिवारीके दिन रात्रिको हटड़ीमें जब प्रभु पधारें तब भेट करें। वह सब भेट बांटिके चोपड़के च्यारों खाली खण्डनमें धरें। जो बचे सो बीचके खाली खण्डमें धरै । भाव यह राखै जो जुवा लगाय खेलत हैं न धरिये तो प्रभु जुवा न खेलें तो आपनको इतनी सेवा सिद्ध न होय तातें अवश्य बांटिके च्यारों ओर धरिये। बट्टै सो मध्य धरिये ये तीनों भेट गुरूके यहां अवश्य पहुँचावनी। पवित्रा भेट गुरुको होय और दोय भेट गुरूके सेव्यस्वरूपकी होंय हैं ताते जहां और उत्सवकी भेट रहे तहां येहू भेट तीनूं सुधि करिके दीजिये तब स्वांगसेवा सिद्ध होय ॥
SR No.010554
Book TitleVallabhvrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangavishnu Shrikrushnadas
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1937
Total Pages399
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size121 MB
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