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श्रीहरिः ।
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श्रीवल्लभपुष्टिप्रकाश।
तीसरा भाग।
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श्रीकृष्णाय नमः ॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥ अथ भाव भावना, सेव्यस्वरूपनिर्णय । अब वैष्णवनके ठाकुरस्वरूप विराजित होंय तो यह भाव राखै जाके घरके जे सेवक तिनके मुख्य सेव्यस्वरूप तिनको आविर्भाव स्वरूप मुख्य ८ और समान, “षोडशगोपिकानां मध्ये अष्ट कृष्णा भवन्ति” इति वाक्यात् श्रीजी तथा सातों स्वरूप तहां इतनो भेद वृन्दावनस्थितिलीला केवल पुष्टिश्रीजीके यहां नंदालयस्थितिलीला बाहिर मर्यादा वृत्त अन्तःपुष्टि सातों स्वरूपनके यहां स्मरणीय श्रीजी और सेवनीय सातों स्वरूप"सदा सर्वात्मना सेव्योभगवान गोकुलेश्वरः । स्मर्त्तव्यो गोपिकाबृन्दैः क्रीडन् वृंदावने स्थितः॥ ” इति वाक्यात् यातें वैष्णवके घरमें जे स्वरूप विराजतहैं ते तिनके घरके सेवक हैं तिनके सेव्यस्वरूपको आविर्भाव तातें सेवा करे सो अपने घरकी रीतकी करनी जा घरकी जैसी रीत तैसी रीतकी करनी तहां वैष्णवको यई विचारनो जो शृङ्गार तथा सकल सामग्री अंगीकार करेंगे वहां स्वमार्गीय विधिपूर्वक ह्यां यत् किंचित् में समाप्तिहूँ सो अंगीकार करोगे यह भावमें जो समर्पिये सो अंगी| कार होत है । तब सकल सामग्री अंगीकार होतहै तातें जावैष्ण
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