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________________ चतुरंगीय ( ५ ) कर्मपिंड से लिपटे हुए प्राणी इस तरह से संसार चक्र में फिरते रहते हैं और जिस तरह से सब कुछ साधन रहने पर भी क्षत्रिय सर्वार्थों की प्रतीति नहीं कर पाते उसी तरह संसार में रहते हुए भी उन्हें वैराग्य की प्राप्ति नहीं होती । टिप्पणी--चार वर्णों में क्षत्रियों को विशेष भोगी साना है और इसी लिये उनकी यहां उपमा दी गई है । २७ (६) कमों के फंदों में फंसे हुए और तज्जन्य क्लेश से दुःखी जीव श्रमानुषी (नरक या तिर्यंच) गति में चले जाते हैं । (७) कर्मों का अधिक नाश होने पर शुद्धिप्राप्त जीवात्मा, अनुक्रम से मनुष्य योनि को प्राप्त होता है । टिप्पणी- शास्त्रकारों ने मनुष्यभव को उत्तम माना है क्योंकि आत्मविकास के सभी साधन इस जन्म में प्राप्त होते हैं । (८) मनुष्य शरीर पाकर भी उस सत्यधर्म का श्रवण दुर्लभ है जिस धर्म को श्रवण करने से जीव तपश्चर्या, क्षमा और हिंसा को पासकें । टिप्पणी-- सत्संग, सत्य अथवा सद्धर्म की प्राप्ति तभी मानी जाय जब कि उपरोक्त सद्गुण प्रकट हों । ( ९ ) कदाचित वैसा सत्य श्रवरण मिलभी जाय फिर भी उस पर श्रद्धा होना ( सत्यधर्म पर पूर्ण डग प्रतीति होना ) तो बहुत ही दुर्लभ है, क्योंकि न्यायमार्ग ( मुक्तिमार्ग ) को सुनने पर भी बहुत से जीव पतित होते हुए देखे जाते हैं । टिप्पणी - शास्त्र को अथवा गुरुवचन को सत्यबुद्धि से निश्चयपूर्वक धारण करने की स्थिति (दशा) को 'श्रद्धा' कहते हैं। श्रद्धावान् मनुष्य उपदेश श्रवण के बाद अकर्मण्य बैठा नहीं रहता । ( आत्मविकास के मार्ग में लग ही जाता है ।)
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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