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विनय श्रुत
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उत्तम है ! श्रन्यथा (कर्म जन्य ) मार अथवा दूसरे बन्धन मुझे, दमन करेंगे ही ?
टिप्पणी-- उक्त सूत्र को अपने आप पर घटाना चाहिये । संयम और तप से शरीर का दमन होता है । यह दमन स्वतन्त्र होता है, किन्तु जो दमन असंयम तथा उच्छूल वृत्ति से होता है परतन्त्र होता है और इसी कारण वह आत्मा को विशेष दुःखदायी होता है । (१७) वाणी अथवा कर्म से, गुप्त अथवा प्रकट रूप में गुरुजनों से कभी वैर नहीं करना चाहिये ।
महापुरुषों के पास किस तरह बैठना चाहिये ?
(१८) गुरुजनों की पीठ के पास अथवा आगे पीछे नहीं बैठना चाहिये । इतना पास भी न बैठना चाहिये कि जिससे अपने पैरों का उनके पेरों से स्पर्श हो । शय्या पर लेटे लेटे अथवा अपनी जगह पर बैठे २ ही प्रत्युत्तर नहीं देना चाहिये ।
(१९) गुरुजनों के समक्ष पैर पर पैर चढ़ाकर, अथवा घुटने छाती से सटाकर, अथवा पैर फैलाकर भी नहीं बैठना चाहिये |
(२०) यदि श्राचार्य बुलावें तो कभी भी मौन ( चुपचाप ) न रहना चाहिये । मुमुक्षु एवं गुरुकृपेच्छु शिष्य को तत्काल ही उनके पास जाकर उपस्थित होना चाहिये । (२१) जब कभी भी आचार्य धीमे श्रथवा जोर से बुलावें तब चुपचाप बैठे न रहना चाहिये किन्तु विवेक पूर्वक अपना . आसन छोड़कर धीरता के साथ निकट जाकर उनकी श्राज्ञा सुननी चाहिये ।