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कर्मप्रकृति
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(२३) नाम और गोत्र इन दोनों कर्मों की जघन्य स्थिति आठ
अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट आयु वीस क्रोडाकोडी
सागर की है। (२४) सब कर्मस्कंधों के अनुभाग (परिणाम किंवा रस देने की
शक्ति) का प्रमाण सिद्धगति प्राप्त अनंत जीवों की संख्या का अनन्तवां आग है किन्तु यदि सर्व कर्मों के परमाणुओं की अपेक्षा से कहें तो उनका प्रमाण यावन्मात्र जीवों की
संख्या से भी अधिक आता है । टिप्पणी-स्कंध संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओं के बने
होते हैं और इस कारण उनकी संख्या बहुत न्यून हैं किन्तु परमाणु तो इस तमाम लोकाकाश में व्याप्त हैं इसलिये प्रमाण (संख्या) में अनन्तानंत हैं इस हिसाब से इसकी संख्या सबसे अधिक है। जव पदार्थ की संख्या ही अनन्त है तो उसके परमाणुओं (अनुभागों)
की संख्या अधिक हो यह स्वाभाविक ही है। (२५) इस प्रकार इन कमों के रसों को जानकर मुमुक्षु जीव
ऐसा प्रयत्न करे जिससे कर्म का बंध न हो और पूर्व में बांधे हुए कर्मों का भी क्षय होता जाय और ऐसा करने
में सदैव अपने उपयोग को जागृत रक्खे । टिप्पणी कर्म के परिणाम तीव्र भयंकर हैं। कर्मवेदना का संवेदन
तीक्ष्ण शस्त्र के समान असा लगता है और कर्म का नियम हृदय को कंपा दे ऐसा घोर है। कर्म के वन्धन चेतन की सामर्थ्य छीन लेते हैं। चेतन की व्याकुलता यही कष्ट है, यही संसार है और यही दुःख है । ऐसा जानकर अशुभ कर्म से निवृत्त होना और शुभ कर्म का संचय करना यही उचित है। चैतन्य की प्रवल सामर्थ्य