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उत्तराध्ययन सूत्र
(१८) जैसे महासागर को तैर जाने के बाद गंगा जैसी बड़ी नदी
को पार करजाना सरल है वैसे ही स्त्रियों की आसक्ति छोड़
देने के बाद दूसरे प्रकार की सभी (धनादि की)आसक्तियां - आसानी से छोड़ी जा सकती हैं। (१९) देवलोक तक के समग्र लोक में जो कुछ भी शारीरिक
तथा मानसिक दुःख हैं वे सब सचमुच कामभोगों की - आसक्ति से ही पैदा हुए हैं इसलिये निरासक्त पुरुष ही
उन दुःखों का पार पा सकते हैं। (२०) जैसे स्वाद में तथा रंग मे किंपाक वृक्ष के फल बड़े ही
मधुर लगते हैं परन्तु ( खाने के बाद थोड़े ही समय में) मार डालते हैं यही उपमा कामभोगों के परिणामो की. समझो । (अर्थात् ये भोगते हुए तो अच्छे लगते हैं किन्तु
इनका परिणाम महा दुःखदायी है।) (२१) समाधि का इच्छक तपस्वीसाधु इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय
में मन को न दौड़ावे, न उनपर राग करे और न अम
नोज्ञ विषयों पर द्वेप ही करे। (२२) चक्षु इन्द्रिय का विपय रूप है। जो रूप मनोज्ञ है वह
राग का तथा अमनोज्ञ रूप द्वेष का कारण है। इन दोनों में जो समभाव रखता है उसे महापुरुष 'वीतराग'
( रागद्वेप रहित ) कहते हैं। (२३) चक्षु यह रूप को ग्रहण करनेवाली इन्द्रिय है और रूप
का प्राह्य विषय है। इस कारण सुन्दर रूप राग का कारण है और कुरूप.द्वेप का कारण है ऐसा महापुरुषों ने कहा है।