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चरणविधि
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चारित्र के प्रकार
- पाप का प्रवाह चला पाता है उसको रोकने की क्रिया
को संवर कहते हैं। पापमें से छूट जाना अथवा धर्ममें लीन होजाना एक ही बात है। पापका आधार मात्र क्रिया पर नहीं है किन्तु क्रिया के पीछे लग हुए आत्माके अध्यवसार्यों पर है। कलपित वासनासे किया हुआ कार्य, संभव है ऊपर से बड़ा अच्छा और पुनीत भी मालूम पड़ता है किंतु वस्तुतः वह मलीन है और व्यर्थ है। शुभभावना से किया हुआ कार्य, देखने में भले ही कनिष्ठ अथवा निम्नकाट का मालूम होता हो फिर भी वह उत्तम है और प्रात्मतृप्ति के लिये यथेष्ट है।
प्रात्माके साथ यह शरीर भी लगा हुआ है, इसके लिये खाना, पीना, योजना, वैठना, उठना इत्यादि सभी कार्य किये बिना हम नहीं रह सकते। उनसे निवृत्त होना-कदाचित पोटे समय के लिये संभव हो सकता है किन्तु जीवन भर के लिये वैसा रहना असंभव है। मान लीजिये कि हम बाहर की
बिना हम नहीलना, बैठना भी लगाया