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________________ ३५० उत्तराध्ययन सूत्र - क्षपकणि (कमा का क्षय करने वाली श्रेणि ) का जीवात्मा दसवें गुणस्थानक से ग्यारहवें गुणस्थान में न जाकर सीधा वारहवं गुणस्थान में पहुँच जाता है। इस दशा में उसकी कपायें क्षीण हो जाती हैं और इसलिये वह तेरहवें गुणस्थानक में पहुँच कर केवली हो जाता है। इस समय आठ कमरों में से चार कर्मों के (निःसत्व नाम मात्र के) आवरण रह जाते हैं इसलिये यह सयोग केवली, जवतक इस शरीर की स्थिति रहती है तब तक इस शरीर सम्बन्धी क्रियाओं के कारण कर्म करते रहते हैं किन्तु वे कर्म भासतिरहित होने के कारण (भारमा को) बंधन कर्ता नहीं होते और तरक्षण ही खिर जाते हैं। इस क्रिया को ईपिथ की क्रिया, कहते हैं। आयुष्यकाल के पूर्ण होने के समय शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद जिसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति कहते हैं-उसको चिन्तन करते हुए सबसे पहिले मनोयोग, वचनयोग, तथा काययोग इस प्रकार इन तीनों को क्रम से रोककर अन्त में श्वासोच्ट्रास को भी रोककर वह मात्मा बिलकुल भकंप बनता है। इस स्थिति को शैलेशी अवस्था कहते है। इस अवस्था में, अ, इ, ट, म, तथा ट इन पांच इस्व स्वरों को बोलने में जितना समय लगता है उतने समय मात्र की ही स्थिति होती है। बाद में शुक्फ व्यान के चौथे भेद व्युपरतक्रियानिवृत्ति द्वारा अवशिष्ट चार अवातिया कमों का नाशकर आत्मा अपने पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर शुद्ध, बुद्ध तया मुक्त हो जाता है। शुद्ध चेतन की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होने के कारण वह आत्मा ऊँचा ऊँचा वहाँ तक चला जाता है जहाँ तक उसकी गति में सहायक मास्तिकाय रहता है। उसके आगे गति हो ही नहीं सकती इसलिये वह शुद्ध परममारमा वहीं स्थिर हो जाती है। यह स्थान लोक के अन्तिम भाग पर है और उसे सिद्ध गति (सिद्धशिला-मोक्ष स्थान) कहते हैं।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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