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________________ सम्यक्त्व पराक्रम ३४९ । ज्यादा) के असंख्य भेद हैं दूसरी और तीसरी भूमिकाएं ( सास्वा. दान और मिश्र गुणस्थान ) भी अस्थिर हैं। इन दोनों अवस्थाओं में भी मिथ्यात्व का प्राधान्य किंवा अस्तित्व बना रहता है। आत्मा के भाव डांवांडोल रहते हैं, कभी सत्य की तरफ आकृष्ट होते हैं तो कमी असत्य में ही मुग्ध हो जाते है। इसलिये इन तीन गुण. स्थानों में तो मोक्ष सिद्धि का कोई साधन है ही नहीं। चौथे गुणस्थानक का नाम सम्यक्त्व है यहाँ पर मिथ्यात्व का सर्वथा नाश हो जाता है और सम्यक्त्व ( सत्य का दृढ़ श्रद्धान-अटल प्रतीति की) प्राप्ति होती है। आत्मा को यहीं से अपना भान होता है और उसका उद्देश्य क्या है और वह कहां पड़ा हुआ है, और इससे छूटने का उपाय क्या है आदि बातों का विचार करने लगता है। 'सच्ची बात तो यह है कि इसी गुणस्थानक से वह मोक्ष प्राप्ति की तरफ अग्रसर होना शुरू करता है। अन्य दर्शनों (धर्मों) में इसी स्थिति को आत्मदर्शन अथवा आत्म साक्षात्कार कहा है। इस गुणस्थानक में संसार भ्रमण के मूल कारण तीव्र कषायें मंद पड़ जाती है और आत्मा के परिणाम जितने ही शुद्ध, कृत्रिम शुद्ध अथवा मिश्र होंगे तदनुसार उसे क्षायिक, उपशम अथवा क्षयोपशम स्थिति कहते है। आठवें गुणस्थान में पहुँच कर इन तीन श्रेणियों में से केवल दो रह जाती हैं जिनको 'उपशम श्रेणि' और 'क्षपकश्रेणि' कहते है । 'उपशम श्रेणि,' ( कर्मों वाले जीव का उपशम करने वाली श्रेणि) आगे बढ़कर फिर पतित हो जाते हैं, क्योंकि उनकी विशुद्धि सच्ची नहीं है, कृत्रिम है। जैसे राख से ढंका हुआ अंगार ऊपर से शान्त दीखता है किन्तु हवा का झोंका लगते ही राख उड़ जाती है और अग्नि चमकने लगती है, वैसे ही उपशम श्रेणि वाले जीव भी ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुंच जाने पर भी सूक्ष्म लोभ कषाय के निमित्त से वहां से पतित हो जाते हैं।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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