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सम्यक्त्व पराक्रम
छोड़कर चारित्र में निश्चल बनता है । इस प्रकार एकान्तसेवी जीव आठों कमों के बंधनों को तोड़ कर अन्त में मोक्ष लाभ करता है ।
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(३२) शिष्य ने पूंछा - हे पूज्य ! विषयों की विरक्ति से जीव
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को क्या लाभ है ?
गुरु ने कहा - हे भद्र! विषयविरक्त जीवात्मा के नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है और कर्मों के क्षय होने से चार गतिरूपी इस संसार अटवी को वह पार कर जाता है ।
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(३३) शिष्य ने पूंछा - हे पूज्य ! संभोग के प्रत्याख्यान से जीव को क्या लाभ है ?
गुरू ने कहा - हे भद्र ! संभोगोंके प्रत्याख्यानसे जीव का परावलंबनपन छूट जाता है और वह स्वावलम्बी होता है। ऐसे स्वावलंबी जीव की योग प्रवृत्ति उत्तम अर्थ वाली होती है । उसे आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है और उसीमें उसे सन्तोष रहता है; दूसरी किसी भी वस्तु के लाभ को वह आशा नहीं करता । कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना तथा अभिलाषा इनमें से वह एक भी नहीं करता और इस प्रकार वह अस्पृही - श्रनभिलाषी होकर उत्तम प्रकार को सुखशय्या ( शान्ति ) को प्राप्त होकर विचरता है ।
टिप्पणी:- संयमियों के पारस्परिक व्यवहार को, संभोग' कहते हैं । ऐसे मुनि को संभोग ( अति परिचय ) से दूर रहकर निर्लेप रहना चाहिये ।