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________________ ३१४ उत्तराध्ययन सूत्र (१४) जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध __ और मोक्ष ये नौ तत्व है। (१५) स्वाभाविक रीति (जातिस्मरण ज्ञान इत्यादि) से या किसी दूसरे के उपदेश से भावपूर्वक उक्त समस्त पदार्थों की श्रद्धा करना-उसे महापुरुप समकित (सम्यक्त्व) कहते हैं। टिप्पणी सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थ आत्मभान होना। जैन दर्शन में वर्णित १४ गुणास्थानकों में से चौथे गुणस्थानक से हो आत्मविकास मारम्म होता है और उस प्रारम्भ को ही 'सम्यक्त्व' कहते हैं। (१६) (१)निसर्गरुचि, (२) उपदेशरुचि, (३) आज्ञारुचि, (४) सूत्र रुचि, (५) वीजरुचि, (६) अभिगम रुचि, (७) विस्तार सचि, (८) क्रिया रुचि, (९) संक्षेप रुचि, (१०) धर्मरुचि, -इन दस रुचियों से तरतम (हीनाविक) रूप में समकित की प्राप्ति होती है। (१७) जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बंध, तथा मोक्ष-इन ९ पदार्थों का यथार्थ रूप से जातिस्मरणादि ज्ञान द्वारा जानकर श्रद्धान करना उसे 'निसर्ग कचि सम्यक्त्व' कहते हैं। (१८) जो पुरुष जिनेश्वरों द्वारा अनुभूत भावों को द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से स्वयमेव जातिस्मरणादि ज्ञान द्वारा जानकर, तत्त्वका स्वरूप ऐसा ही है-अन्यथा नहीं है, ऐसा अडग श्रद्धान करता है उसे 'निसर्गरुचि सम्यक्वी' कहते हैं।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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