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________________ २६६ उत्तराध्ययन सूत्रं (८७) उसी स्थान पर (भगवान महावीर के ). पंच महाव्रतरूपी धर्म को भावपूर्वक स्वीकार किया और उस सुखमार्ग में गमन किया कि जिस मार्ग की प्ररूपणा प्रथम तथा अंतिम तीर्थकर भगवानों ने की थी। (८८) वाद में भी, जब तक श्रावस्तीनगरी में ये दोनों समुदाय रहे तब तक केशी तथा गौतम का समागम नित्यप्रति होता रहा और शास्त्रष्टि से किया हुआ शिक्षाव्रतादि का निर्णय उनके ज्ञान एवं चारित्र इन दोनों अंगों में वृद्धि कर हुआ। टिप्पणी-फेशी तथा गौतम इन दोनों गण के शिष्यों को वह र तथा वह समागम बहुत लामदायक हुआ क्योंकि शास्त्रार्थ ३' उन दोनों की उदार दृष्टि थी। दोनों में से किसी एक कदाग्रह न था और इसीलिये शास्त्रार्थ भी सत्यसाधक हुआ। अह होता तो शास्त्र के बहाने से बहुत कुछ अनर्थ हो जा' संभावना थी किन्तु सच्चे ज्ञानी सदैव कदाग्रह से दूर रहते हैं । सत्य वस्तु को, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाय, स्वीकार किये नहीं रह सकत। (८९) (इस शास्त्रार्थ से.) समस्त परिपद को अत्यंत सन्तो' हुआ। सबों को सत्यमार्ग की झांकी हुई। श्रोताओ के भी सच्चे मार्ग का ज्ञान हुआ और वे सब इन दोनो महपियों कीस्तुति प्रार्थना करने लगे। , “केशीमुनि तथा गौतम ऋपि सदा जयवंत रहो" ऐसे अशील फल लग CHAL सब देव, दानव *मैं विप के समान जहराल
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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