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(८७) उसी स्थान पर ( भगवान महावीर के ) पंच महाव्रतरूपी धर्म को भावपूर्वक स्वीकार किया और उस सुखमार्ग में गमन किया कि जिस मार्ग की प्ररूपणा प्रथम तथा अंतिम तीर्थंकर भगवानों ने की थी ।
उत्तराध्ययन सूत्र
(८८) वाद में भी, जब तक श्रावस्तीनगरी में ये दोनों समुदाय रहे तब तक केशी तथा गौतम का समागम नित्यप्रति होता रहा और शास्त्रदृष्टि से किया हुआ शिक्षात्रतादि का निर्णय उनके ज्ञान एवं चारित्र इन दोनों अंगो में वृद्धि - कर हुआ ।
टिप्पणी- केशी तथा गौतम इन दोनों गण के शिष्यों को वह शास्त्रार्थ तथा वह समागम बहुत लाभदायक हुआ क्योंकि शास्त्रार्थ करने में उन दोनों की उदार दृष्टि थी। दोनों में से किसी एक को भी कदाग्रह न था और इसीलिये शास्त्रार्थ भी सत्य साधक हुआ । कदाग्रह होता तो शास्त्र के बहाने से बहुत कुछ अनर्थ हो जाने की संभावना थी किन्तु सच्चे ज्ञानी सदैव कदाग्रह से दूर रहते हैं और सत्य वस्तु को, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाय, स्वीकार किये बिना नहीं रह सकते |
(८९) ( इस शास्त्रार्थ से ) समस्त परिषद को अत्यंत सन्तोष हुआ । सवों को सत्यमार्ग की झांकी हुई । श्रोताओं को भी सच्चे मार्ग का ज्ञान हुआ और वे सब इन दोनों मह पियों की स्तुति प्रार्थना करने लगे । “केशीमुनि तथा गौतम ऋषि सदा जयवंत रहो" अशी फल ऐसे सब देव, दानव के लिए के समान
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