________________
रथनेमीय
Vvvvvvvvvvvvvvv
~
~
~
~
~
~
~
~
(२६) और ज्ञान, दर्शन, तथा चारित्र से तथा क्षमा, निर्लोभता आदि
गुणों के द्वारा नित्य आगे आगे बढ़ते रहो। टिप्पणी-ज्ञान, दर्शन, तथा चारित्र इन तीन की पूर्ण प्राप्ति होने से
जैनधर्म मुक्ति होना मानता है। ज्ञान अर्थात् आत्मा की पहिचान दर्शन अर्थात् आत्मदर्शन और चारित्र का अर्थ आत्मरमणता है। इस त्रिपुटी की तन्मयता की ज्यों २ वृद्धि होती जाती है त्यों २ कर्मों के बन्धन ढीले पड़ते जाते हैं और जब आत्मा कर्मों से सर्वथा
अलिप्त हो जाता है उस स्थिति को मुक्ति कहते हैं। (२७) इस प्रकार बलभद्र, कृष्ण महाराज, यादव तथा अन्य
नगरनिवासी नन अरिष्टनेमि को प्रणाम कर फिर वहाँ से
द्वारिका नगरी में आये। (२८) इस तरफ वह राजकन्या राजीमती, अरिष्टनेमि के यका
यक दीक्षा धारण के समाचार सुनकर हास्य तथा आनन्द से रहित होकर शोक की अधिकता से मूर्छित होकर
जमीन पर गिर पड़ी। (२९) होश आने पर राजीमती विचार करने लगी कि युवान
राजकुमार ने तो मुझे त्याग दिया और राजपाट तथा भोग सुख छोड़कर तथा दीक्षा धारण कर वे योगी बन गये और मैं अभी यहीं (घर हो में ) हूँ। मेरे जीवन को धिक्कार है। मुझे भी दीक्षा लेनी चाहिये इसीमें
मेरा कल्याण है। ' (३०) इसके बाद पूर्ण वैराग्य से प्रेरिह होकर जून
राजीमती ने भौरों के समान है