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'रथनेमीय
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जानने की भावना को बिलकुल ही खो बैठे हैं ? ऐसा सामान्य विचार भी उनको क्यों न होता होगा ! ठीक है, जहां वह दृष्टि ही नहीं है वहां विचार कहां से पैदा हो सकता है ? जहां परम्परा का अन्धा अनुकरण किया जाता है वहां विवेक कहां से आवे? ऐसे अनर्थ संयोगों से क्या लाभ ? ऐसे सम्बन्धों से पतन के सिवाय उन्नति कहां थी? ऐसा विचार करने के परिणाम स्वरूप उन्हें तीव्र निर्वेद (वैराग्य) हुआ जिससे उनकी सांसारिक आसक्ति उड़ गई ।
रमणी (स्त्री) के कोमल प्रलोभन का चेप उनको लुभा न सका। (२०) तुरन्त ही उन यशस्वी नेमिनाथ ने अपने कानों के दोनों
कुंडल, लम के चिन्ह ( मोर मुकुट, कंकण आदि ), तथा अन्य समस्त आभूषण उतार कर सारथी को दे दिये और
रथ से उतर वहीं से पीछे लोट चले। टिप्पणी ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि नेमिनाथ आगे न
जाकर घर की तरफ पीछे लौट पड़े थे। इस आकस्मिक परिवर्तन से उनके सगे सम्बन्धी तथा तमाम बरातियों को बड़ा दु.ख हुआ और उनने उन्हें बहुत समझाया-बुझाया, अनुनय-विनय की, सब कुछ किया किन्तु वे पीछे न लोटे। दिन प्रति दिन उनका वैराग्य भाव प्रबल होता गया। वर्षीदान (प्रत्येक तीर्थकर दीक्षा लेने के पहिले एक वर्ष तक महामूलादान किया करते हैं उसे) देकर अन्त में एक
हजार साधकों के साथ वे दीक्षित हुए। (२१) नेमिनाथ ने घर आकर ज्यों ही चारित्र धारण करने का
विचार किया त्योंही उनके पूर्व प्रभाव से प्रेरित होकर दिव्य ऋद्धि तथा बड़ी परिपद् ( समूह ) के साथ बहुत से लोकांतिक देव भगवान का निष्क्रमण तप कल्याण के लिये मनुष्यलोक में उतरे ।