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द्रपालीय
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मुनि की तरह सरल भाव धारण करे और राग से विरक्त होकर (ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र द्वारा ) मोक्षमार्ग की उपासना करे। साधु को यदि कभी संयम में अरुचि अथवा असंयम में रुचि पैदा हो तो उनको दूर करे। आसक्ति भाव से दूर रहे और आत्मचिंतन में लीन रहे। शोक, ममता, तथा परिग्रह की तृष्णा छोड़ कर समाधि की प्राप्ति कर परमार्थ
पद में स्थिर हो। (२२) इस तरह समुद्रपाल योगीश्वर आत्मरक्षक तथा प्राणीरक्षक
बनकर उपलेप रहित तथा परनिमित्तक (दूसरों के निमित्त बनाये गये) एकांत स्थानों में विचरते थे तथा विपुल यशस्वी महर्षियों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया था उसीका वे भी अनुसरण करते थे। ऐसा करते हुए उनने
उपसर्गों तथा परिषहों को शान्तिपूर्वक सहन किया। २३) ऐसे यशस्वी तथा ज्ञानी समुद्रपाल महर्षि निरंतर ज्ञान मार्ग
में आगे २ बढ़ते गये तथा उत्तम धर्म ( संयम धर्म ) का पालन कर अन्त में केवलज्ञान रूपी अनन्त लक्ष्मी के स्वामी हुए और आकाशमंडल में जैसे सूर्य शोभित होता है वैसे ही इस महीमंडल में अपने आत्मप्रकाश से दीप्त
होने लगे। (२४) पुण्य और पाप इन दोनों प्रकार के कर्मों -
शरीर के मोह से वे सब प्रकार से छट अवस्था को प्राप्त हुए और इस संसार जाकर वे महामुनि समुद्रपाल ५