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________________ महा निर्मथीय २१३ ज्यों ज्यों रात्रि व्यतीत होती गई त्यों त्यों मेरी वह दारुण { वेदना भी क्षीण होती गई । (३४) उसके बाद प्रातःकाल तो मैं बिलकुल नीरोग होगया और उक्त सभी सगे सम्बन्धियों की आज्ञा लेकर क्षांत, दांत, तथा निरारम्भी होकर मैं संयमी बन गया । (३५) संयम धारण करने के बाद मैं अपने श्रापका तथा समस्त स ( द्वीन्द्रियादिक) जीवों तथा स्थावर (एकेन्द्रियादिक) जीवों - सब का नाथ ( रक्षक) होगया । टिप्पणी- आसक्ति के बन्धन छूटने से अपनी आत्मा छूटती है । इसी आत्मिक स्वावलम्बन का अपर नाम सनाथता है । ऐसी सनाथता मिल जाने पर बाह्य सहायताओं की इच्छा ही नहीं रहती । जिस जीव को ऐसी सनाथता प्राप्त होती है वह जीवात्मा दूसरे जीवों का भी नाथ बन सकता है । बाह्य बन्धनों से किसी को छुड़ा देना इसीका नाम सच्ची रक्षा नहीं है किन्तु दुःखी प्राणियों को आन्तरिक बन्धन से छुड़ाना इसी का नाम सच्चा स्वामित्व - सच्ची दया - है | ऐसी सनाथता ही सच्ची सनाथता है इसके सिवाय की दूसरी बातें सभी अनाथताएं ही हैं । (३६) हे राजन् ! क्योंकि यह आत्मा ही ( आत्मा के लिये ) वैतरणी नदी तथा कूटशाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है और वही कामधेनु तथा नन्दन वन के समान सु दायी भी है । टिप्पणी- यह जीवात्मा अपने ही पाप कर्मों द्वारा नरकगि अनन्त दुःख भोगता है और वही अपने ही सत्कर्मों द्वारा स्वर के विविध दिव्य सुख भी भोगता है ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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