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मृगापुत्रीय
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चलना जितना कठिन है उतना ही तपश्चर्या के मार्ग पर, चलना कठिन है ।
(३८) हे पुत्र ! जैसे सांप की तरह एकान्त सोधी ( आत्मा ) दृष्टि से चारित्र मार्ग में चलना दुष्कर है; जैसे लोहे के चने चबाना कठिन है वैसा ही कठिन संयम पालन करना है ।
( ३९ ) जैसे प्रज्वलित अग्नि की शिखा को पीजाना कठिन है वैसे ही तरुण वय में संयम पालना कठिन है ।
(४०) जैसे हवा से थैली भरना कठिन अथवा असाध्य है वैसे ही कायर द्वारा संयम का पालन होना कठिन है ।
( ४१ ) जैसे कांटे से एक लाख योजन वाले मेरु पर्वत को भेदना अशक्य है वैसे ही निर्बल मनोवृत्ति के पुरुषों द्वारा शंका रहित तथा निश्चल संयम का पालना कठिन है ।
(४२) जैसे दो हाथो से विस्तीर्ण समुद्र को पार कर जाना कठिन है वैसे ही अनुशांत ( अशक्त ) जीवों द्वारा दम ( इंद्रिय निग्रह ) रूपी सागर का पार कर जाना कठिन है ।
(४३) इसलिये हे पुत्र । अभी तो तू स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द इन पांचों इन्द्रियों के विषयों को मनमाना भोग और भुक्तभोगी होकर बाद में कभी चारित्रधर्म को खुशी से ग्रहण करना ।
(४४) इस प्रकार मातापिता के वचन सुनकर मृगापुत्र ने कहा :- हे माता पिता ! आपने जो कहा सो सब सत्य परन्तु निःस्पृही ( इच्छा रहित ) के लिये इस लोक में कुछ भी अशक्य नहीं है ।
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