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________________ १५८ _ . उत्तराध्ययन सूत्र - - शिष्यः-'क्यो, भगवन् ?' प्राचार्य:-"सचमुच ही त्रियों की मनोहर एवं आकर्षक इन्द्रियों को देखने वाले या चिंतवन करने वाले ब्रह्मचारी (साधु ) के ब्रह्मचर्य में शंका, आकांक्षा, अथवा विचिकित्सा उत्पन्न होने की संभावना रहती है. जिससे ब्रह्मचर्य के खंडित होजाने, उन्माद होजाने और अन्त में दीर्घकालिक रोग पैदा होजाने का डर है । इसके सिवाय केवली अगवान द्वारा कथित धर्म से पवन होजाने की संभावना है। इसलिये सच्चे ब्रह्मचारी साधक को स्त्रियों के मनोहर तथा आकर्षक अंगोपांगों को विषयबुद्धि से न देखना चाहिये और न उनका चितवन ही करना चाहिये।" (५) कपड़ के पर्दे अथवा दीवाल के पीछे से आते हुए स्त्रियों के कूजन ( कोयलों का सा मीठा स्वर),(शब्द), रुदन, गायन, हँसने का शब्द, स्नेही शब्द, कंदित शब्द तथा पति विरह से उत्पन्न विलाप के शब्दों को जो नहीं सुनता है वही आदर्श ब्रह्मचारी या साध है। शिष्य:-"क्यों, भगवन् ?" आचार्य:-"पर्दे अथवा दीवाल के पीछे से आते हुए स्त्रियों के कूजन; रुदन, गायन, हास्य शब्द, स्तनित ( रति प्रसंग के सीत्कार श्रादि) आनंद अथवा विलाप मय शब्दों के सुनने से ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में क्षति पहुँचती है अथवा उन्माद होने की संभावना है। जिससे , क्रमशः शरीर में रोग उत्पन्न होकर भगवान द्वारा कथित
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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