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________________ १४० उत्तराध्ययन सूत्र ~ - - ~~~~~~~~ wwwwvvvvvvvvw. wwwwnon करेंगे। ऐसे विपय सुख कभी नहीं भोगे-सो तो है ही नहीं। इसलिये अब तो इस राग ( सांसारिक आसक्ति) . को छोड़कर भिक्षुधर्म में श्रद्धा रखना यही श्रेष्ट है। तरुण पुत्रों के इन हृदय द्रावक वचनों ने पिता के पूर्व - संस्कारों को जागृत कर दिया फिर उसने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा:(२९) हे वाशिष्टि ! मेरा भिक्षाचरी ( भिक्षुधर्म ग्रहण ) करने का समय अव आ गया है क्योंकि जैसे वृक्ष शाखाओं से शोभित तथा स्थिर रहता है; शाखाओं के टूटने से जैसे वह सुन्दर वृक्ष एकदम शोभाहोन ढूंठ दिखाई देता है से ही अपने दोनों पुत्रों के बिना मेरा गृहस्थ जीवन ___ में रहना योग्य नहीं है। टिप्पणी-पत्नी का वशिष्ठ गोत्र होने से टसे वाशिष्टि कहा है। .(३०) जिस तरह पंख बिना पक्षी, संग्राम में सैन्य रहित राजा, जहाज में द्रव्यहीन व्यापारी शोभित नहीं होता और उन्हें शोक करना पड़ता है वैसे ही पुत्र रहित मैं नहीं शोमता और दुःखी होता हूँ। (३१) ( यह सुनकर उसकी स्त्री जसा पति की परीक्षा करने के लिये यों वोली:-) उत्तम प्रकार के रसवाले तथा तमाम कामभोगों के साधन हमें मिले हुए हैं तो तो कामभोगों ( इन्द्रियों के विपयों । को खबरही है। फिर बाद में श्रमः ।।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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