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________________ इषुकारीय . १३९ वापिस नहीं आता । किन्तु सद्धर्म का आचरण करनेवाले का वह समय सफल हो जाता है। टिप्पणी-समय के सदुपयोग करनेवाले को समय के हाथ में से निकल जाने का पछतावा कभी नहीं होता । पुत्र के अमृततुल्य वचनों से पिता का हृदय पलटता जाता था फिर भी वात्सल्य भाव उनको विदा देने में रोक रहा था। वह बोले:-- (२६) हे पुत्रो ! सम्यक्त्व संयुक्त (आसक्ति रहित ) होकर थोड़े समय तक हम चारों जन (माता, पिता तथा दोनों . पुत्र ) गृहस्थाश्रम में रहकर कुछ दिनों बाद हम सब घर घर भिक्षा मांगकर जीवित रहनेवाले ऐसे आदर्श मुनि बनेंगे। (२५) (पुत्रों ने कहा:-) हे पिताजी ! जिसकी मृत्यु के साथ . मित्रता हो, अथवा जो मृत्यु से छुटकारा पा सकता हो, अथवा जो यह जानता हो कि मैं नहीं मरूंगा वही सच-- मुच कल का विश्वास कर सकता है। टिप्पणी-कैसी भादर्श जिज्ञासा है ! त्यागी होने की कैसी उत्कट इच्छा है ! आदर्श वैरागी के क्याही हृदयभेदक वचन हैं ! क्या रह भाव हृदय की गहरी प्रतीति बिना या त्याग की योग्यता बिना हो सकता है ? सत्य की झांखी होने के बाद एक क्षण का भी विरह इन्हें असह्य लगता है ! दलये जिसे प्राप्त कर फिर दुबारा जन्म ही न लेना पड़े B." BE T Eआज ही अंगीकार
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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