________________
की आवश्यकता ही क्या रही। इस तरह की शाश्वतवादियों ('नियति-~बादियों) की मान्यता होती है, किन्तु जब आयु शिथिल होती है तब उसकी भी वह मान्यता बदल जाती है और उस समय उसको खूब पश्चाताप होता है।"
[अनुवाद शली] अनुवाद दो प्रकार के होते है:-(१) शब्दार्थ प्रधान अनुवाद, और ( २) वाक्यार्थ प्रधान अनुवाद । शब्दार्थ प्रधान अनुवाद में शब्द पर जितना लक्ष्य दिया जाता है उतना लक्ष्य अर्थसंकलना पर नहीं दिया जाता। इससे शब्दार्थ तो स्पष्ट रीति से समझ . में आ जाते हैं किन्तु भावार्थ समझने में बड़ी देर लगती है। और कई बार तो बड़ी कठिनता भी मालूम होती है। किन्तु वाक्यार्थ प्रधान अनुवाद में शब्दों के फुटकर अर्थ गौण कर दिये जाते हैं परन्तु वाक्य रचना एवं शैली इतनी सुन्दर तथा रोचक होती है कि वांचक के हृदय पट पर उसको पढ़ते पढ़ते उसके गंभीर रहस्य क्रमशः अंकित होते चले जाते हैं और अन्य एवं ग्रन्थकार के उद्देश्य इस शैली से भली प्रकार संपन्न होते हैं। इस ग्रंथ के अनुवाद में यद्यपि मुख्यतया इसी शैली का अनुसरण किया गया है फिर भी मुलगत शब्दों के अर्थों को कहीं नहीं - छोढ़ा है और साथ ही साथ इसका भी यथाशक्य ध्यान रखा है कि भाषा कहीं टूटने न पाये और सबकी समझ में सरलता के साथ आसके . ऐसी सुबोध एवं सुगम्य हो ।
[टिप्पणी ] जैन तथा जैनेतर इनमें से प्रत्येक वर्ग को समझने में सरलता हो इस उद्देश्य से उचित आवश्यक प्रसंगों पर टिप्पणियां भी दी गई हैं। ये टिप्पणिया यद्यपि छोटी हैं किन्तु अपने श्लोक के अर्थ को. विशेप स्पष्ट करती हैं। इसके साथ ही साथ प्रत्येक अध्ययन का रहस्य समझाने के लिये प्रायः सभी अध्ययनों के आदि तथा अन्त में छोटी २. टिप्पणियां दी गई हैं। पद्य शैली कितनी ही सुन्दर एव विस्तृत क्योंन हो किन्तु उसमें कुछ न कुछ विषय अकथ्य-अवर्णित-अध्याहार