________________
१२८
उत्तराध्ययन सूत्र
टिप्पणी-युवावस्था में जो भोगविलास बड़े प्यारे लगते थे, वे ही
वृन्दावस्या में नीरस लगते हैं। (३२) यदि भोगों को सर्वथा छोड़ने में समर्थ न हो तो हे
राजन् ! दया, प्रेम, परोपकार, आदि आयेकम कर । सर्व प्रजा पर दयालु तथा धर्मपरायण होकर राज्य करेगा तो तू यहां (गृहस्थाश्रम ) से चलकर कामरूप धारण करने वाला उत्तम देव होगा । (ऐसा चित्तमुनि
ने कहा) टिप्पणी-~-गृहस्थाश्रम में भी यथा शक्ति त्याग किया जाय तो उससे
देवयोनि मिलती है। (३३) ( योगासक्त राना कुछ भी उपदेश ग्रहण न करने से
चित्तमुनि निर्वेदता (खिन्नता) अनुभव करते हुए बोले:-) हे राजन् ! तुम इस संसार के प्रारंभ तथा परिग्रहों में. खूब प्रासक्त हो रहे हो। काम भोगों को छोड़ने की तुम्हारी थोड़ी सी भी इच्छा नहीं है तो मेरा सव उपदेश व्यर्थ हो गया ऐसा में मानता हूँ। हे राजा ! अब मैं
आपसे विदा होता हूँ (ऐसा कहकर चित्तमुनि वहां से
विहार कर गये)। (३४) पांचालपति ब्रह्मदत्त ने पवित्र मुनि के हितकारी वचन.
(उपदेश ) न मान और अन्त में, जैसे उत्तम कामभोग . उसने भोगे थे वैसे ही उत्तम ( घोरातिघोर सातवें . में वह गया। टिप्पणी-वैला. करोगे वैसी मोगोरी
.
.
20
.
(३५) और चित्तलको
चिमा,