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________________ चित्तसंभूतीय ११७ - ~ ~ ~ ~ ~ इसके बाद मर कर ये दोनों जीव अपनी पुरानी तपश्चर्या के कारण देवयोनि में उत्पन्न होते है। वहां पूर्ण श्रायु भोगने के बाद प्रासक्ति के कारण इन दोनों का युगल टूट जाता है 'और उसी से संभूति कंपिला नगरी में चुलनी माता के उदर से ब्रह्मदत्त नामक चक्रवर्ती राजा पैदा होता है। चित्त का जीव स्वर्ग से चय कर पुणिताल नगर में धनपति नगरसेठ के यहां जन्म लेता है और पूर्व पुरयों के योग से समस्त सांसारिक सुखों से परिवेष्ठित होता है। एक बार एक सन्त के मुख से एक गम्भीर गाथा सुन कर चित्त का जीव विचार में पड़ जाता है। उस पर विचार करते करते उसे ऐसा भाव होता है कि कहीं उसने यह गाथा सुनी है। उस पर विचार करते करते उन्हें जाति स्मरण (अनेक पूर्व भवों का स्मरण ) हो आता है। उसी समय जगत की असारता का विचार करते हुए वह माता पिता का प्रेम, युवती स्त्रियों के भोग विलास तथा सम्पत्ति का मोह छोड़ कर जैसे सांप कांचली को छोड़ देता है, वैसे ही सांसारिक विषयों को लात मार कर साधु की दीक्षा धारण करता है। पूर्व भव का संभूति का जीव अब ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती था। चक्रवती के अनुपम, अप्रतिहत तथा सर्वोत्तम दिव्य सुखों को भोगते हुए भी कभी कभी उसके हृदय में एक अव्यक्त धीमी -सी वेदना हुआ करती है । एक समय वह उद्यान में विहार का आनन्द ले रहा था। यकायक नवपुष्पों का एक गुच्छा देख कर उसे ऐसा मालूम हुआ कि ऐसा तो मैंने कहीं देखा है। और अनुभव भी किया है । तुरन्त ही उसे जाति स्मरण हुश्रा 'और देवगति के साथ सामने अपने पिछले जन्मों के वृतान्त भी मालूम हो । चिसे असह्य हो उठा।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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