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बहुश्रुत पूज्य
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'न अर्थात् आत्मप्रकाश । यह प्रकाश प्रत्येक
॥ प्रात्मा में भरा हुया है; मात्र उसके ऊपर छाये हुए आवरण निकल जाने चाहिये और हृदय के द्वार उघड़ जाने चाहिये। शास्त्रों का अभ्यास शोध के लिये है ऐसा जानकर तत्त्वज्ञ पुरुष शास्त्रों को पढ़कर भूल जाते हैं।
अहंकार यह ज्ञान की अर्गला (चटकनी) है। अहंकार गया तो ज्ञानरूपी खजाने को खुला समझो। ज्ञानी की परीक्षा उसके शील (आकार) से होती है। शास्त्रों से नहीं।
भगवान बोले-- (१) संयोग (आसक्ति) से विशेषरूप से रहित और गृह
त्यागी ऐसे भिक्षु के आचार का क्रमपूर्वक वर्णन करता
हूँ, उसे ध्यान से सुनो। (२) जो वैरागी होकर भी मानी, लोभी, असंयमी और वारं--
वार विवाद करता है उसे अविनीत तथा अबहुश्रुति (अज्ञानी) समझना चाहिये ।