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________________ नमि प्रव्रज्या ७७ (५६) अहो! आपने क्रोध जीत लिया है, अभिमान को आपने दूर किया है, माया जाल को तोड़ डाला है और लोभ को वश किया है। (५७) धन्य साधु महाराज! क्या ही अनुपम अापका सरलता. भाव है। आपकी कोमलता कैसी अनोखी है! क्या ही अनुपम आपकी सहनशीलता है। क्या हो उत्तम आपका तप है। क्या ही अद्भुत आपकी निरासक्ति है। (५८) हे भगवन् ! यहां (इस लोक में ) भी आप उत्तम हैं और पीछे भी ( परलोक में भी) आप उत्तम ही होंगे। तीन लोक में सर्वोत्कृष्ट स्थान ऐसी मोक्ष को श्राप निष्कर्मीः (कर्म.रहित ) होकर अवश्य पायेंगे। (५९) इन्द्र इस प्रकार- उत्तम श्रद्धाभक्ति पूर्वक नमिराजर्षि की · स्तुति कर बार २ प्रदक्षिणा देने लगा और मुक २ कर वंदन करने लगा। (६०) इसके बाद चक्र तथा अंकुश इत्यादि लक्ष्यों से अंकित उन मुनीश्वर के चरणों को पूजकर ललित तथा चपल कुण्डलों को धारण करने वाले इन्द्रराज आकाश में अंत र्धान हो गये। (६१) विदेह ( मिथिला ) का राजा नमिमुनि, जो घरबार छोड़ कर श्रमण-भाव मे बराबर स्थिर रहा वह साक्षात इन्द्र द्वारा प्रेरित होकर अपनी आत्मा को और भी विशेष नम्र बनाता हुआ। (६२) इस तरह विशेष सुज्ञ और बुद्धिमान साधक नमिराजर्षि की तरह स्वयं बोध पाकर भोगों से निवृत्त हो जाते हैं।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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