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________________ नमि प्रव्रज्या (४८) कैलास पर्वत के समान ( अति ऊंचे ) सोने चाँदी के असंख्य पर्वत कदाचित किसी को दिये जांय तो भी एक लोभी के लिये पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि सचमुच इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं । आशा (तृष्णा) का अंत कभी नहीं हुआ । एक इच्छा पूरी होते ही उससे भी बड़ी दूसरी इच्छा जागृत होती है । 1 टिप्पणी- तृष्णा का गड्ढा ही ऐसा विचित्र है कि उसमें ज्यों ज्यों डालते जामो त्यो २ वह और भी गहरा होता जाता है । तृष्णा जगी कि अपने सभी साधन, विभूति आदि अपूर्ण जैसे दिखाई देने लगते हैं संतोष होते ही दुःख का पहाड़ नष्ट हो जाता है और अपने अपूर्ण साधन भी आवश्यकता से अधिक जान पड़ते हैं । (४९) समस्त पृथ्वी, शाली के चावल, जौ ( पृथ्वी पर होने वाले सभी धान्य, ) पशु, और सोना ये सब एक ( असन्तुष्ट मनुष्य ) के लिये भी पर्याप्त नहीं है ऐसा जानकर तपश्चर्या करना यही उत्तम है । टिप्पणी- तपश्चर्या अर्थात् आशा (तृष्णा) का आशा को जीता उसने संसार जीत लिया । आशाधारी है। सभी को तृष्णा लगी हुई है । का ही दूसरा नाम यह संसार है और आशारहित प्रवृत्ति उसी का नाम निवृत्ति है । विरोध | जिसने सारा संसार ही आशामय प्रवृत्ति ७५. (५०) इस अर्थ को सुनकर, हेतु तथा कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमिराजर्षि को यों कहा: - (५१) हे पृथ्वीपति ! तू श्रद्भुत जैसे प्राप्त भोगों को छोड़ता है , और अप्राप्त भोगो की इच्छा करता है । सचमुच तू कल्पनामय सुखों में भूल रहा है । +
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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