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नमि प्रव्रज्या
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फिर कुछ जीतना बाकी नहीं रहता । जिसने आत्मा जीत
ली उसने सब कुछ जीत लिया। (३७) इस अर्थ को सुन कर हेतु, तथा कारण से प्रेरित देवेन्द्र
'ने, नमिराजर्षि से. पुनः यों कहाः(३८) हे क्षत्रिय ! बड़े २ यज्ञ करके, तापसों, श्रमणों और
ब्राह्मणों को जिमा (भोजन करा) कर, दान करके, भोग
करके तथा भजन (पूजा अर्चा) करके फिर जाओ। 'टिप्पणी-उस काल में क्षत्रिय राजाभों को बड़े २ यज्ञ करने को - ब्राह्मण प्रेरणा किया करते थे और उनको जिमाने में ही धर्म बताया
करते थे । गृहस्थाश्रम के सामान्य धर्म की अपेक्षा यह धर्म विशिष्ट : माना जाता था। इसलिये क्षत्रिय कर्म बता कर यहां उसके लिये .. धर्म दिशा का सूचन किया है। ५३९) इस अर्थ को सुन कर, हेतु तथा कारण से प्रेरित नमिरा
जर्षि ने देवेन्द्र को यह उत्तर दियाः(४०)जो प्रतिमास १०-१० लाख गायों का दान करता है उसकी . अपेक्षा कुछ भी न देने वाले संयमी का आत्म संयम अव
श्यमेव बहुत उत्तम है। टिप्पणी-अपरिग्रह वृत्ति यही उत्तम धर्म है। एक संयमी मनुष्य अव्यक्त
रीति से सैकड़ों का पोषण कर सकता है । असंयमी होकर दान करने की अपेक्षा संयम पालना बहुत उत्तम है। इस श्लोक पर गहरा विचार करने से अपनी जीवन दशा की विटम्बना मिट फर उज्ज्वल
मार्ग मिल जाता है। (४१) इस अर्थ को सुन कर, हेतु तथा कारण से प्रेरित देवेन्द्र
से नमिराजर्षि से पुनः यों कहा:-. . '