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________________ अध्याच अखंड बहुतसे धान्यवाजोंका जिस प्रकार भंडारमें रहना होता है अर्थात्-जितने प्रमाण धान्यवीज भंडारमें रखे जाते हैं उतने हीप्रमाण रहते हैं घटते बढते नहीं, परस्पर मिलते भी नहीं एवं जव संभाल की जाती है उससमय उतनेके उतने ही निकलते हैं उसीप्रकारजिनका निश्चय परके उपदेशमे नहीं हुआ है एवं जो आपसमें भिन्न २ हैं ऐसे बहुतसे पदार्थ ग्रंथ और बीजोंका जो एक बुद्धिमें रहना है अर्थात् जो है * शब्द अर्थ वा वीज, बुद्धिमें प्रविष्ट हैं वे उतने ही रहते हैं एक भी अक्षर आदि घटता वढता नहीं, आगे र पछि भी नहीं होता है वह कोष्ठबुद्धि नामकी ऋद्धि है। पदानुसरित्व नामकी ऋद्धि अनुश्रोत पदानुसारित्व १ प्रतिश्रोत पदानुसारित्व २ और अनुश्रोत प्रति श्रोत पदानुसारित्व ३ के भेदसे तीन प्रकार है। आदि अंत वा मध्यके एक किसी पदके उच्चारण करनेपर जो समस्त ग्रंथके अर्थका निश्चय कर लेना है वह पदानुसारित्व नामकी ऋद्धि है। बारह योजन प्रमाण लंबे और नौ योजन प्रमाण विस्तीर्ण चक्रवर्तीके कटकमें हाथी घोडे गधे ऊंट मनुष्य आदिके ८ एक ही कालमें अक्षरात्मक अनक्षरात्मक अनेक प्रकारक शब्दोंकी उत्पचि होती है उन समस्त शब्दोंका, तपके विशेषसे होनेवाला जो जीवके समस्त प्रदेशोंमें श्रोत्रंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम रूप परिणाम, है उससे जो भिन्न भिन्न रूपसे ग्रहण कर लेना है वह संभिन्नश्रोतृत्व नामकी ऋद्धि है । तपकी विशेष - सामर्थ्यसे जिस मुनिके असाधारण रूपसे रसनेंद्रिय श्रुतज्ञानावरण और वीयांतराय कर्मका क्षयोपशम प्रगट होगया है एवं अंगोपांग नामक नाम कर्मका उदय है ऐसे मुनिके जो नौ योजन प्रमाण रसना इंद्रियके विषय भूत क्षेत्रसे भी वाहिरके बहुत योजन प्रमाण दूर क्षेत्रमें स्थित पदार्थके रसके स्वादलेनेकी सामर्थ्यका प्रगट होजाना है वह दुरास्वादन समर्थता नामकी ऋद्धि है। इसीप्रकार शेष इंद्रियोंकी भी GARASHTRA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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