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'पूर्वयोः' इस द्विवचनका निर्देश होता तब सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान दोनोंका ग्रहण हो सकता था। सो है नहीं इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्राप्त हो जाने पर सम्यक्चारित्र भाज्य है यह अर्थ नहीं मापा हो सकता। यदि यह कहा जायगा कि 'पूर्वस्य' यह सामान्य निर्देश है इसलिये सामान्यरूपसे सम्यग्द|शन और सम्यग्ज्ञान दोनोंका ग्रहण हो जायगा कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है। पूर्वस्य' इस निर्दे७ शसे एकहीका ग्रहण होगा यह व्यवस्था निश्चित हो चुकी है यदि यह व्यवस्था स्वीकार न की जायगी 8 और 'पूर्वस्य' इस निर्देशसे जवरन सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान दोनोंका ग्रहण किया जायगा तो वार्तिकमें
उचर शब्द मोजूद है उसकी भी व्यवस्था न माननी पडेगी क्योंकि वहां पर 'उत्तरं' इस नपुंसकर्लिंग है। एक वचनसे एकहीका ग्रहण है जब एक वचनके निर्देशसे एकके ग्रहणको कोई व्यवस्था न मानी जायगी
तब उचर शब्दसे दोका भी ग्रहण किया जा सकता है इसरीतिसे 'सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जाने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र दोनों भाज्य है। यह अर्थ होगा और इस अर्थ के होने पर जो यह दोष
दिया गया था कि यदि 'सम्यग्दर्शनके प्राप्त हो जानेपर सम्यग्ज्ञान भाज्य है' यह अर्थ किया जायगा | तो 'श्रद्धानको अज्ञानपूर्वकपना आवेगा' वह दोष ज्योंका यो कायम रहेगा इसलिये 'सम्यग्दर्शनके
प्राप्त हो जाने पर श्रुतज्ञान और केवलज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान भाज्य है' यह जो शब्दनयकी अपेक्षा अर्थ किया गया था वही युक्त है। अथवा
. क्षायिक सम्यग्दर्शनके प्राप्त हो जाने पर क्षायिक सम्यग्ज्ञान भाज्य है यह अर्थ है । इस अर्थके न करने पर कोई दोष नहीं आता क्योंकि क्षायिकसम्यग्ज्ञान का अर्थ केवलज्ञान है। क्षायिकसम्यग्दर्शनके
होनेपर वह होवेगा ही यह कोई नियम नहीं किंतु हो भी सकता है और नहीं भी, इसलिये सम्यग्दः ।
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